________________
सर्वविशुद्धज्ञानाषिकार
५६३
ददाति कर्म हरति च ततः सर्व एव जीवाः नित्यमेव कांतेनाकर्तार एवेति निश्चिनुमः किंव श्रुतिरप्येन मर्थं माह, पुंवेदाख्यं कर्म स्त्रियमभिलषति स्त्रीवेदास्यं कर्म पुमांसमभिलषति इति Satara कर्मण एव कर्माभिलाषकर्तृ त्वसमर्थनेन जीवस्था ब्रह्मकर्तृत्वासमर्थनेन च जीवस्याब्रह्मकर्तृत्वप्रतिषेधात् । तथा यत्परं हंति, येन च परेण हन्यते तत्परघातकर्मेति वाक्येन कर्मण एव कर्मघातकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्य धातकर्तृत्वप्रतिषेधाच्च सर्वथैवाक्तुं त्वज्ञापनात् । एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सुश्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छ्रमरणाभासाः प्ररूपयंति तेषां प्रकृतेरेकांतेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकांतेनाकर्तृत्वापत्तेः जीवः कर्तेति श्रुतेः कोपो
.
पुरुष एकवचन भावकर्मप्रक्रिया सुहाविज्जइ सुखायते दुक्खाविज्जद दुःखायते वर्तमान अन्य० एक० नामधातु भावकर्मप्रक्रिया । णिज्जइ नीयते वर्तमान० अन्य० एक० क्रिया । भमाडिज्जइ भ्राम्यते - वर्तमान अन्य० एक० भावकर्मप्रक्रिया । उड्छं ऊर्ध्वं अहो अधः - अव्यय । तिरियलोय तिर्यग्लोकं, किज्जर क्रियतेवर्तमान अन्य० एक० भावकर्मप्रक्रिया सुहासुहं शुभाशुभं प्र० एक० कर्मवाच्य कर्म । जम्हा यस्मात्पंचमी एक० । कम्भं कर्म - प्र० एक० । कुत्व करोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । हरइ हरति- वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जं यत् प्रथमा एक० । तम्हा तस्मात् पंचमी एक० । सव्यजीवा सर्वजीवाः - प्र० बहु० । अकारया अकारका प्र० बहु० । हुति भवन्ति वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । आण्णा आपन्ना:- प्रथमा बहु० । पुरिसित्थयाहिलासी पुरुषः स्त्र्यभिलाषी - प्रथमा एक० । स्त्रीकर्मप्र० ए० । पुरिसं द्वि० ए० एसा एषा प्र० ए० । आयरियपरंपरागया आचार्य परम्परागता एरिसी ईदृशी
कर्म हो आत्माको सुखी करता है, क्योंकि सातावेदनीयकर्मके उदयके बिना सुखको श्रनुपपत्ति है । कर्म ही आत्माको दुःखी करता है क्योंकि असातावेदनीयकर्मके उदयके बिना दुःखकी अनुपपत्ति है । कर्म ही श्रात्माको मिथ्यादृष्टि करता है, क्योंकि मिथ्यात्व कर्मके उदयके बिना मिथ्यात्वकी अनुपपत्ति है । कर्म ही श्रात्माको श्रसंयमी करता है, क्योंकि चारित्रमोहक मैके उदयके बिना असंयमकी अनुपपत्ति है । कर्म हो आत्माको ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में और तिर्यलोक भ्रमाता है, क्योंकि श्रानुपूर्वीनामकर्मके उदयके बिना भ्रमणको प्रनुपपत्ति है । भन्य जो भी कुछ शुभ अशुभ हैं, उन सबको कर्म ही करता है; क्योंकि प्रशस्त श्रप्रशस्त रागनामक कर्मके उदयके बिना उस शुभ अशुभ की अनुपपत्ति है। इस प्रकार सब ही को स्वतन्त्र होकर कर्म ही करता है, कर्म हो देता है, कर्म ही हरता है, इसलिये हम ऐसा निश्चय करते हैं कि सभी जीव नित्य एकांत से प्रकर्ता हो हैं। और क्या शास्त्र भी इसी अभिप्रायका समर्थन करता है । क्योंकि पुवेदकमं स्त्रोको और स्त्रीवेदकर्म पुरुषकी अभिलाषा करता है, इस वाक्य से कर्मकी ही अभिलाषारूप कर्मके कर्तृत्व के समर्थन द्वारा जीवके प्रब्रह्मका समर्थन न होनेसे atest ब्रह्मका कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता । तथा 'जो दूसरेको मारता है और दूसरेसे मारा