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समयसार
दुःशक्यः परिहत् । यस्तु कर्म आत्मनोऽज्ञानादिसर्वभावाद पर्यायरूपान् करोति मात्मा त्वात्मानमेवैकं द्रव्यरूपं करोति ततो जीवः कति शुद्धिकोपरे ग पहा पाभप्रापः स मिव । जीवो हि द्रव्यरूपेण तावन्नित्योऽसंख्येयप्रदेशो लोकपरिमाणश्च । सत्र न तावन्नित्यस्य कार्यत्वमुपपन्न सुई श्रुति:-प्र० ए० । को क:-प्र० ए० । जीवो जीवः अबभचारी अब्रह्मचारी-प्र० ए० । अम्ह अस्माकंपाठी बहु० । उवएसे उपदेशे-सप्तमी एक० । अहिलसइ अभिलपति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० किया । भणियं भणित-प्रथमा एकवचन । घाएइ हंति-वर्तमान० अन्य एक० किया । परं-हि० एक० । परेण-तृ० एक० । घाइज्जए हन्यते-बर्तमान अन्य एका भावकर्मप्रक्रिया । सा पयडी सा प्रकृतिः-प्रथमा एक । जाता है वह परघातकर्म है, इस माक्यसे कर्मको हो कर्मके घातका कर्तृत्व होनेके समर्थन द्वारा जीवके घातकर्तृत्वका निषेध होनेसे जीवके सर्वथा अकर्तृत्वका ही समर्थन होता है । इस प्रकार कुछ श्रमणाभास अपने बुद्धिदोषसे आगमके अभिप्रायको बिना हो समझे सांख्यमतका अनुसरण करते हैं। उनके इस तरह प्रकृतिको एकान्ततः कर्ता मान लेनेसे सब ही जोद एकान्तसे अकर्ता सिद्ध हो जाते हैं । तब 'जीव कर्ता है' श्रुतिका यह कोप दूर करना दुःशक्य हो जाता है ।
और 'कर्म आत्माके पर्यायरूप अज्ञानादि भावोंको करता है और प्रात्मा द्रव्यरूप केवल मात्मा को हो करता है इस तरह प्रागमको विरुद्धता न होगी, ऐसा जो प्राशय है वह मिथ्या ही है। क्योंकि जीव द्रव्यरूपसे नित्य, असंख्यातप्रदेशी और लोकके बराबर है, अतः जो नित्य होता है वह कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि कृतकत्व और नित्यत्वमें परस्पर विरोध है। यहाँ यह कहना भी ठीक नहीं कि अवस्थित और असंख्यातप्रदेशो आत्माके पुद्गल स्कंधको तरह प्रदेशोंके बिछुड़ने मिलनेसे कार्यत्व सिद्ध हो जायेगा, क्योंकि प्रदेशोंके बिछुड़ने मिलनेसे उसमें एकत्व नहीं रह सकता । और 'सम्पूर्ण लोक भवन के बराबर विस्तार वाला प्रात्मा जब अपने नियत (छोटे बड़े) शरीरोंको धारण करता है तब आत्मप्रदेशोंमें संकोच विस्तार होनेके कारण उसमें कार्यत्व सिद्ध हो जायगा' यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि संकोच विस्तार होनेपर भी सूखी गीली अवस्थामें अपने ही परिमाणके अन्दर रहने वाले 'चमड़े की तरह अात्मा को अपने निश्चित विस्तारसे होनाधिक नहीं किया जा सकता। और नंकि वस्तुस्वभावको मिटाया नहीं जा सकता इसलिए प्रात्माका ज्ञायकभाव सदा ज्ञान स्वभावसे ही रहता है और जब वह ज्ञानस्वभावसे रहता है तब ज्ञायकता और कर्तृता दोनोंमें परस्पर विरोध होनेसे वह मिथ्यात्वादि भावोंका कर्ता नहीं हो सकता परन्तु मिथ्यात्वादि भाव होते अवश्य हैं इस लिये *म हो उन का कर्ता कहा जाता है ऐसा कथन केवल संस्कारके प्राधीन होकर ही किया जा सकता है । इससे तो 'प्रात्मा मात्माको करता है' इस मान्यताका पूर्णतया खण्डन ही