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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार कृतकत्वनित्यन्वयोरेकत्वविरोधात् । न चावस्थिताऽसंख्येयप्रदेशस्यैकस्य पुद्गलस्कंधस्येव प्रदेशप्रक्षेपणापंणगारेगापि लभ्य कार्यत्वं प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणे सति तस्यैकत्वव्याघातात् । न चापि सकललोकवास्तुविस्तारपरिमितनियत निजाभोगसंग्रहस्य प्रदेशसंकोचनविकाशनद्वारेण तस्य कार्यत्वं, प्रदेशसंकोचविकाशयोरपि शुष्काचर्मवत्प्रतिनियतनिजविस्ताराद्धीनाधिकस्य तस्य कर्तुमक्ष क्यएएणअच्छेण एतेनन-तृ एक । भण्णइ भण्यते-वर्तमान र अन्य एक० भाकर्मप्रक्रिया । परयायणाम परघातनाम वधायओ उपपातका:- एक अस्थिरत-० अ कया। बारी दिति-या 0 एक्रिया। संखुवासं सांस्योपदश-दितीया एक० । पविति प्रापयन्ति-ब० अ० यह क्रिया। एरिस ईशं-द्वि० ए० । समणा श्रमणा:-प्र० बहुत 1 तेसिं तेषां-पष्ठी बहु० । पयडी प्रकृति:-प्र० ए० । कुब्वाइ होता है। इस कारण सामान्यकी अपेक्षासे ज्ञानस्वभावमें स्थित होकर भी ज्ञायकभाव जब कमसि उत्पन्न मिथ्यात्वादि भावोंका ज्ञान करता है तब अनादिकालसे ज्ञेय ज्ञान का भेद न समझनेके कारण परपदार्थको अपना मानने लगता है सो विशेषको अपेक्षासे अज्ञानमयी परि. सामोंके करनेके कारण उसका कर्ता मानना चाहिए। वह भो तब तक, जब तक कि इसे प्रकट भेदज्ञानको पूर्णता न हो, पूर्णता हो जानेपर जब वह अात्माको ही प्रात्मा जानने लगता है, तब इस विशेषको अपेक्षासे ज्ञानमयी ज्ञानपरिणामोंसे परिणमन करता है, उस समय मात्र ज्ञाता होनेसे वह साक्षात् अकर्ता रहता है । भावार्थ --कितने ही जैन श्रमण भी स्याद्वादवाणीको अच्छे प्रकार न समझोके कारण सर्वथा एकांतका अभिप्राय करते हैं, और विवक्षाको बदलकर यह कहते हैं कि 'प्रात्मा तो भावकर्मका अकर्ता ही है। कर्म प्रकृतिका उदय हो शरीर व भावकर्मको करता है । ऐसा सर्वथा एकान्तको मानने वाले उन मुनियोंपर जिनवागोका कोप अवश्य होता है, क्योंकि जिनवाणीका कथन है कि प्रत्येक सत् अपना परिणमन करता रहता है, प्रात्मा भी अपना परिणमन करता है। जिनवाणीके कोपके भय से यदि वे विवक्षाको बदलकर ऐसा कहें कि भावकर्मका कर्ता कर्म है और अपने प्रात्माका कर्ता प्रात्मा है, इस प्रकार हम अात्माको कचित् कर्ता कहते हैं, इसलिए वारणीको विराधना नहीं होती, तो उनका ऐसा कहना मिथ्या ही है 1 प्रात्मा द्रव्यसे नित्य है, असंख्यातप्रदेशी है, लोकपरिमाण है, इसलिए उसमें तो कुछ नबीन करना नहीं है। इसलिए आत्माके कर्तृत्व और अकर्तृत्वको विवक्षाको यथार्थ मानना ही स्याद्वादको 'यथार्थ मानना है' प्रात्माके कर्तृत्व और अकर्तृत्वके संबंध में सत्यार्थ स्याद्वाद प्ररूपा इस प्रकार है। प्रात्मा सामान्य अपेक्षासे तो ज्ञानस्वभावमें ही स्थित है, परंतु मिथ्यात्वादि भावोंको जानते समय अनादिकालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञान के प्रभाव
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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