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समयसार
त्वात् । यस्तु वस्तुस्वभावस्य सर्वथापोढुमशक्यत्वात् ज्ञायको भावो ज्ञानस्वभावेन सर्वदेव तिष्ठति, तथा तिष्ठंश्च ज्ञायककर्तृत्वयोरत्यंतविरुद्धत्वामिथ्यात्वादिभावानां न कर्ता भवति । भवंति च मिथ्यात्वादिभावाः ततस्तेषां कमव कर्तृ प्ररूप्यत इति वासनोन्मेष: स तु नितरामात्माऽऽत्मानं करोतोत्यभ्युपगममुपहत्येव ततो ज्ञायकस्य भावस्य सामान्यापेक्षया ज्ञानस्वभावावस्थितत्वेऽपि कर्मजानां मिथ्यात्वादिभावानां ज्ञानसमयेऽनादिज्ञयज्ञानभेदविज्ञानशून्यत्वात् परमात्मेति जानतो करोलि-व० अ० ए० । अप्पा अकारया सटवे आत्मान: अकारकाः सर्वे-प्र. बहु० । मष्णसि मन्यसे वर्तमान० मध्यम० एक० | मज्झ मम-षष्ठी एक० । अप्पा आत्मा-प्र० ए० । अप्पाणं आस्मानं-द्वि० एक० । के कारण ज्ञेयरूप मिथ्यात्वादि भावोंको अात्माके रूपमें जानता है इस प्रकार विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करनेसे कर्ता है, और जब भेदविज्ञान होनेसे प्रात्माको ही मात्माके रूपमें जानता है, तब विशेष अपेक्षासे भी ज्ञानरूप परिणाममें ही परिणमिन होता हुआ मात्र ज्ञाता रहनेसे ज्ञानी साक्षात् प्रकर्ता है ।
___ अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-मां कार इत्यादि । अर्थ- अहंतके अनुयायी ये जन भी आत्माको, सांख्य मतियोंकी तरह सर्वथा अकर्ता मत मानो, भेदज्ञान होने से पहिले उसे सदा कर्ता मानो और भेदज्ञान होनेसे पश्चात् उद्धत ज्ञानधाममें निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्माको अकर्ता, अचल और एक परम ज्ञाता ही देखो। भावार्थ-सांख्यमतावलम्बी पुरुषको एकांतसे अकर्ता, शुद्ध, उदासीन, चैतन्यमात्र मानते हैं । ऐसा माननेसे पुरुष को संसारके प्रभावका प्रसंग आता है, और यदि प्रकृतिको संसार माना जाय तो प्रकृति तो जड़ है, उसके सुख-दुःख प्रादिका संवेदन नहीं है, इसलिये प्रकृतिको संसार कैसा इत्यादि दोष एकान्तमान्यतामें पाते हैं। क्योंकि वस्तुका स्वरूप सर्वथा एकांत नहीं है। इस कारण वे सर्वथा नित्यकान्तवादी मिथ्याष्टि हैं। उसी तरह जो जैन भी ऐसा मानते हैं तो वे भी मिथ्थादृष्टि होते हैं। इसलिये प्राचार्य यहाँ उपदेश करते हैं कि सांख्यमतियोंको तरह जन मात्माको सर्वया प्रकर्ता मत मानो । जहां तक स्व और परका भेदविज्ञान न हो तब तक तो रागादिकका अपने चेतनरूप भावकोका कर्ता मानो, भेदविज्ञान हुए पश्चात् शुद्ध विज्ञानधन समस्त कर्तापनके भावसे रहित एक ज्ञाता ही मानो। इस तरह एक ही प्रात्मामें कर्ता प्रकर्ता दोनों भाव विवक्षाके वशसे सिद्ध होते हैं । यह स्यावाद मत है तथा वस्तुस्वभाव भी ऐसा ही है, कल्पना नहीं है। ऐसा माननेसे पुरुषके संसार मोक्ष प्रादिको सिद्धि होती है। सर्वथा एकांत मानने में निश्चय व्यवहार सबका लोप हो जाता है।
अब क्षणिकवादका सर्वथा एकांत मानने में दूषण दिखलाते हैं तथा स्याद्वादसे जिस