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________________ समयसार ..... . रेण तदनुपपत्तेः । कमव जागरयति निद्राख्यकर्मक्षयोपशममंतरेण तदनुपपत्ते: । कमैव सुखयति सद्वेदास्यकर्मोदयमंतरेव तदनुपपत्तेः । कर्मैव दुःखयति प्रसद्वेदात्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कमव मिथ्याष्टिं करोति मिथ्यात्वकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कमवासंयतं करोति चारित्रमोहाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कमवोद्ध वधिस्तिर्यग्लोकं भ्रमयति प्रानुपूर्व्याख्यकर्मोदयमतरेण तदनुपपत्तेः । अपरमपि यद्यावत्किचिच्छुभाशुभभेदं तसावत्सकलमपि कर्मव करोति प्रशस्ताप्रशस्तरागाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । यत एवं समस्तमपि स्वतंत्र कर्म करोति कर्म ----......... लोकमात्र, खल, ततः, कथं, द्रव्य, अथ, ज्ञायक, भाव, ज्ञानस्वभाव, इति, मत तत, न, अपि, आरमन, स्वयं, आस्मन् । मूलधातु- डुकृत्र करणे, शीङ स्वप्ने अदादि, जागृ निद्राक्षये, सुखाय सुखीकरणे, नामधातुप्रक्रिया, दुःखाय दुखीकरणे नामधातुप्रक्रिया, जीन प्रापणे, भ्रम अनवस्थाने दिवादि, भ्रमु चलने भ्वादि, डुदान पाने जुहोत्यादि, अहरणे बादि, अभि लस श्लेषनोडनयोः भ्वादि, हन हिसायां अदादि, प्र रूप रूपक्रियायां, मन ज्ञाने दिवादि, शक्ल शक्ती स्वादि, ज्ञा अवबोधने यादि, अस भुवि । पदविवरणकम्मेहि कर्मभिः-तृतीया बहुतु तह तथा एव य च अवि अपि जित्तियं यावत् किंचि किंचित् इत्ति इति उ तु ण न वि अपि हि इदि इति किर किल तत्तो तत: अव्यय । अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एक० । किज्जइ क्रियते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक भावकर्मप्रक्रिया। णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । सुवाविज्जई स्वाप्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष णिजन्त भावकर्मप्रक्रिया । जग्गाविज्जइ जागर्यते-वर्तमान लट् अन्य। तथा अधिक हो सकता है ? [द्रव्यं] तब फिर प्रात्मा द्रव्यको [कथं करोति] कैसे कर सकता है ? [प्रथ] अथवा [इति मतं] ऐसा माना जाय कि नायकः भाव: तु] ज्ञायक भाव तो [ज्ञानस्वभाधेन] ज्ञानस्वभावसे [तिष्ठति] तिष्ठता है [तु] तो [लस्मात्] उसी हेतुसे सिद्ध हुआ कि [प्रात्मा] प्रात्मा [प्रात्मनः आत्मानं] अपने आपको [स्वयं नापि करोति] स्वयं कुछ भी नहीं करता। तात्पर्य-कर्तापन साधनेको विवक्षा पलटकर जो पक्ष कहा था सो नहीं बना । यदि कर्मका कर्ता कर्मको ही मानें तो स्याद्वादसे विरोध हो जायेगा; इसलिए कथंचित् प्रज्ञान अवस्थामें अपने अज्ञान भावरूप कर्मका कर्ता माननेमें स्याद्वादसे विरोध नहीं है। टोकार्थ- पूर्वपक्ष--कर्म ही प्रात्माको अज्ञानी करता है; क्योंकि ज्ञानावरण कर्मके उदयके बिना अज्ञानकी अनुपपत्ति है। कर्म ही प्रात्माको ज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानाबरण कर्मके क्षयोपशमके बिना ज्ञानकी अनुपपत्ति है। कर्म ही प्रात्माको सुलाता है, क्योंकि निद्रानामक कर्मके उदयके बिना निद्राकी अनुपपत्ति है । कर्म ही प्रात्माको जगाता है; क्योंकि निद्रानामक कर्भके क्षयोपशमके बिना जगानेकी अनुपपत्ति है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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