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समयसार थेयाई अवराहे कुम्वदि जो सो उ संकिदो भमई । मा वज्झज्जं केणवि चोरोत्ति जणम्मि वियरंतो ॥३०१॥ जो ण कुगाइ अवराहे सो णिस्संको दु जणवए भमदि । णवि तस्स वज्झिदुजे चिंता उप्पज्जदि कयाइ ॥३०२॥ एवं हि सावराहो वज्झामि अहं तु संकिदो चेया। जइ पुण शिरवराहो णिस्संकोहं ण वज्झामि ॥३०३॥ धौर्यादिक अपराधों को जो करता सशंक भ्रमता है । चौर समझकर लोगों के द्वारा मैं न बँध जाऊँ ॥३०१॥ जो अपराष्ट्र न करता वह नि:शंक हो नगरमें भ्रम उसको बँध जानेकी, चिन्ता उत्पन्न नहिं होती ॥३०२॥ यों सापराध बनकर, शंकित्त मैं कर्मफंदसे बंधता ।
यदि होउँ निरपराधी, तो मैं निःशंक नहि बँधता ॥३०३॥ स्तेयादीनपराधान् करोति यः स तु शङ्कितो भ्रमति । मा बध्ये केनापि चौर इति जने विचरन् ।। ३०१॥ यो न करोत्यपराधान् स निश्शंकस्तु जनपदे भ्रमति । नापि तस्य बद्ध यत् चिन्तोत्पद्यते कदाचित् ।।३०२॥ एवं हि सापराधो बध्येऽहं तु शङ्कितश्चेतयिता । यदि पुननिरपराधो निश्शंकोऽहं न बध्ये ॥३०॥
यथात्र लोके य एव परद्रव्यग्रहलक्षणमपराधं करोति तस्यैव बंधशंका संभवति । यस्तु तं न करोति तस्य सा न संभवति । तथात्मापि य एवाशुद्धः सन् परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराध
नामसंज-थेयाइ, अबराह, ज, त, उ, संकिद, मा, क, वि, चोर, इति, जण, वियरत, ज, ण, अवराह, त, णिस्संक, दु, जणवा, ण, वि, त, जे, चिंता, कयाइ, एवं, हि, सावराह, अम्ह, तु, संकिद, चेया, जद, पुण, गिरवराह, णिस्संक, अम्ह, ण । धातुसंज्ञ-कुब्व करणे, भ्रम भ्रमणे, बन्ध बन्धने, उव पज्ज
अब कहते हैं कि परद्रव्यको जो ग्रहण करता है वह अपराधी है और बन्धमे पड़ता है, किंतु जो निज द्रव्यमें नियन्त्रित है वह निरपराधी है वह नहीं बवता-परद्रग्य इत्यादि । अर्थ---परद्रव्यको ग्रहण करता हुप्रा जोय अपराधी है और वह बंधमें पड़ता है; किन्तु अपने द्रव्यमें ही नियत रहने वाला यतीश्वर अपराधरहित है वह नहीं बँधता । भावार्थ-जो परद्रव्यको अपनाता है वही बँधता है और जो प्रात्मस्वरूपको अपनेरूप स्वयं अनुभवता है वह बन्धनरहित होता है।
अब हटान्तपूर्वक सापराध निरपराध बन्धन प्रबन्धनका वृत्त गाथामें कहते हैं--[यः]