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________________ कर्तृकर्माधिकार २२७ सामान्यप्रत्ययानां विकल्पास्त्रयोदश विशेषप्रत्यया गुणशब्दवाच्याः केवला एव कुर्वति कर्माणि । ततः पुद्गलकर्मणामकर्ता जीवो गुणा एव तत्कारस्ते तु पुद्गलद्रव्यमेव । ततः स्थितं पुद्गलकर्मणः पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ ।। १०६.११२ ।। प्रथमा एकवचन । एते-प्रथमा बहुवचन । अचेतना:-प्रथमा बहु० । खलु-अव्यय । पुदगलकर्मोदयसंभवा: ह०। यस्मात-पंचमी एकवचन । ते-प्रथमा बनु । यदि-अव्यय । कुर्वन्ति-धर्तमान लट अन्य पुरुष बहु । कर्म-द्वितीया एक० कर्मकारक । न-अव्यय । अपि अन्य । तेषां-षष्ठी बहुवचन । वेदक:प्र० ए० । आत्मा-प्र०२०। गुणसंशिताः-प्रथमा बहु । तु-अव्यय । एते-प्र० बहु० । कर्म-द्वि० एक०। कुर्वन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु । प्रत्यया:-प्र० बहु । यस्मात्-पंचमी एकवचन हेत्वर्थे । तस्मात्पंचमी एक० । जीव:-१० ए० । अकर्ता-प्र० एक० । गुणा:-प्र० बहु । च-अध्यय। कुर्वन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । कर्माणि-द्वितीया बहुवचन कर्मकारक ।। १०६-११२ ।।। गुणस्थान ब पोमके भेद १ से १३ गुणास्थान हैं, अतः ये १३ गुणस्थान पुद्गलकमके कर्ता हैं । (४) मिथ्यात्वसे सयोगकेवली पर्यंत १३ गुणस्थान पुगलकर्मके विपाकरूप हैं । (५) ये तेरह गुणस्थान पुद्गलकर्मको व्याप्यव्यापकभावसे करते हैं । (६) जीवके परिणामरूप १३ गुणस्थान पुद्गलकर्मविपाकरूप १३ गुणस्थानोंसे अन्य हैं इन दोनों में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है । (७) मिथ्यादृष्टि जीव अपने मिथ्यात्व परिणामको करता है व भोगता है । मिथ्या. दृष्टि जीव पुद्गलमय मिथ्यात्वको नहीं करता व नहीं भोगता । सिद्धान्त-~(१) पुद्गलकर्मका व पौगलिक गुणस्थानोंका पुद्गलद्रव्यके साथ व्याप्यव्यापक भाव होनेसे पुग़लद्रव्य ही कर्ता है । (२) जीवगुणस्थानोंका जीवद्रव्यमें व्याप्यव्यापकभाष होनेसे जीवद्रव्य ही कर्ता है। दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- प्रशुद्धनिश्चयनय (४७)। प्रयोग-पुद्गलकर्मविपाकके प्रतिफलनोंमें राग होनेसे संसारक्लेशविडम्बना जानकर ज्ञानाकारस्वरूप विशुद्ध निज चैतन्यरसके स्वादमें लगना चाहिये । इससे राग मिटेगा प्रतिफलन कर्मसम्बन्ध मिटेगा, कैवल्य प्रकट होगा ।। १०६-११२ ॥ अब कहते हैं कि जोव और उन प्रत्ययोंका एकत्व भी नहीं है-[मया] जैसे [जीवस्य] जोयके [उपयोगः अनम्या] उपयोग एकरूप है [तषा] उसी प्रकार [यदि] यदि [ोषोपि] क्रोध भी [अनन्यः] एकरूप हो जाय तो [एवं] इस तरह [जीवस्य जीव [प] और [अजीवस्य] अजीवके [अनन्यावं] एकत्य [आपन] प्राप्त हुमा [एवं चह] ऐसा होनेसे इस लोकमें [यः तु] जो [जीवः] जीव है [स एव] वहो [नियमतः] नियमसे [तमा] वैसा ही [अजीयः] अजीव हुमा [एक ऐसे दोनोंके एकत्व होनेमें [अयं दोषः] यह दोष प्राप्त हुआ । [प्रत्ययनोकर्मकर्मणां] इसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म-कर्म इनमें भी यही दोष जानना।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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