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बन्धाधिकार
४७५ स्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यकांतिकत्वात् तत्प्रतिपेधकः । तथाहि-नाचारादिशब्दश्रुतं, एकांतेन ज्ञानस्याश्रयः तत्सद्भावेप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन ज्ञानस्याभावात् । न जीवादयः पदार्था दर्शनस्याश्रयाः, तत्सद्भावेप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन दर्शनस्याभावात् । न च पड्जीवनिकाय: चारित्रस्याश्रयस्तत्सद्भावेप्यभावानां शुद्धात्माभायेन चारित्रस्याभावात् । शुद्ध प्रात्मैव ज्ञानस्याश्रयः, प्राचारादिशब्दश्रुतसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव ज्ञानस्य सद्भावात् । शुद्ध प्रात्मैव तथा, चारित्र, तु, व्यवहार, आत्मन्, खलु, अस्मद्, ज्ञान, आत्मन्, अम्मद, दर्शन, चरित्र, च, आत्मन्, प्रत्यास्थान, आत्मन्, अस्मद, संवर, योग । मूलधातु-भण शब्दार्थः । पविबरण-आयारादी आचारादिप्रथमा एक० । णाणं ज्ञानं-प्रथमा एक० । जीवादी जीवादि-प्र० ए० । दसणं दर्शन-प्र० ए० । च-अव्यय । विशीयं विज्ञयं-प्रथमा एक० कृदन्त । छज्जीवणिक पट्जीवनिझां-द्वितीया एक० १ च तहा नथा-अव्यय । होनेपर ज्ञान, दर्शन, चारित्र होते ही हैं, इस कारण निश्चयनय इस व्यवहारका प्रतिषेधक है, प्रतः शुद्धनय उपादेय बताया गया है ।।
प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताकर कि अभव्य पुण्यरूप धर्म व्यवहारचारित्रको श्रद्धा भोगनिमित्त वरता उससे कभैक्षय नहीं है, एक संकेत दिया था कि व्यवहार प्रतिषेध्य है व निश्चय प्रतिषेधक है। अब इन दो गाथावों में बताया है कि वह प्रतिषेध व्यवहार दर्शन ज्ञान प्रादि क्या है और प्रतिषेधक निश्चय दर्शन आदि क्या है ?
तथ्यप्रकाश-(१) प्राचारांग आदि शब्दश्रुत ज्ञानका माश्रय, विषय, कारण होनेसे व्यवहार ज्ञान कहलाता है अथवा श्रुतका शाब्दिक ज्ञान व्यवहार ज्ञान कहलाता है । (२) जीवादिक नव पदार्थ सम्यक्त्वके पाश्रय होनेसे, निमित्त होनेसे व्यवहारसम्यवत्व कहलाता है प्रथवा इन नव पदाथोंका पर्यायरूप श्रद्धान व्यवहारसम्यक्त्व कहलाता है । (३) छह जीवनिकाय अथवा उनकी रक्षा चारित्रका प्राश्रय हेतु होनेसे व्यवहारचारित्र कहलाता है । (४) व्यवहार ज्ञान प्रादि ज्ञानका प्राश्रय करते हुए हों यह नियम नहीं, इस कारण यह व्यवहार प्रतिषेध्य है । (५) पाचारांग आदि शब्दश्रुत प्रभव्यके भी अधीत हो जाता है, किन्तु शुद्धास्मत्वकी प्रतीति न होनेसे वह सम्यग्ज्ञान नहीं। (६) जीवादिक नव पदार्थोंका पर्यायरूप श्रद्धान अभध्यके भी हो जाता है, किन्तु शुद्धात्मत्वको प्रतीति न होनेसे वह सम्यकचारित्र नहीं । (७) षटकायजीवरक्षा प्रभव्य भी करते हैं, किन्तु शुद्धात्मत्वका बोध न होनेसे वहाँ सम्यक्चारित्र नहीं। (८) शुद्धात्मा ही अथवा सुद्धात्माका बोध निश्चय सम्यग्ज्ञान है । (६) शुद्धात्मा अथवा शुद्धात्माका श्रद्धान हो निश्चय सम्यग्दर्शन है। (१०) शुद्धात्मा अथवा शुद्धामाको उपासना निश्चयचारित्र है । शुद्धात्माको सहजवृति ही प्रत्याख्यान है, संवर है,