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समयसार दर्शनस्याश्रयः, जीवादिपदार्थसद्भावेऽसद्धाबे वा तत्सद्भावेनैव दर्शनस्य सद्भावात् । शुद्ध प्रात्मैव चारित्रस्याश्रयः षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् ।। सगादयो बंधनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः । आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रगुन्नाः पुनरेवमाहुः ॥१७४।। ।। २७६-२७७ ।। भणइ भणति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । चारित्तं चारित्रं-द्वितीया एक० । तु-अव्यय । ववहारे व्यवहारः-प्रथमा एक० । आदा आत्मा-प्रथमा एक० । स्खु खलु-अव्यय । मझ मम--षष्ठी एक० । णाणं ज्ञान-प्रथमा एक० । आदा आत्मा-प्र० ए०। मे-षष्ठी एक० । दसणं दर्शन चरितं चारित्र आदा आत्मा पच्चक्लाणं प्रत्याख्यानं आदा आत्मा संवरो संवरः जोगो योगः-प्रथमा एक० । मे-पष्ठी एकवचन ॥२७६२७७।। परमयोग है । (११) निश्चयमोक्षमार्ग में स्थित प्रात्मावोंका नियमसे मोक्ष होता है, किन्तु व्यवहारमोक्षमार्गमें स्थित जीवोंके शुद्धात्मत्वाराधना न हो तो मोक्ष नहीं, इस कारण निश्चयनय प्रतिषेधक है।
सिद्धान्त-(१) निश्चयमोक्षमार्गमें सहजशृद्धात्मत्वका प्राश्रय होनेसे शुद्धदशा प्रकट होनेका विधान है।
दृष्टि---१- शुद्धनिश्चयनय (४६) ।
प्रयोग-शुद्धात्मत्वकी व्यक्तिके लिये सहजशुद्धात्मस्वरूपको प्राराधना करना ॥२७६२७७।।
अब अगले कथनकी सूचनिकामें एक प्रश्न रखा जा रहा है---रागादयो इत्यादि । अर्थ--रागादिक तो बन्धके कारण कहे गये हैं और रागादिक शुद्ध चैतन्यमात्र प्रात्मासे भिन्न कहे हैं तो उनके होने में आत्मा निमित्त कारण है या कोई अन्य ? तो ऐसे पूछनेका प्राचार्य इस प्रकार उत्तर दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं-यथा] जैसे [स्फटिकमणिः] स्फटिकमणि [शुद्धः] स्वयं शुद्ध है वह [रागायः] ललाई प्रादि रंगस्वरूप [स्वयं न परिणमते] स्वयं नहीं परिणमता [तु] परन्तु [स:] वह [अन्यैः रक्तादिभिः द्रव्यः] दूसरे लाल आदि द्रव्यों के द्वारा [रज्यते] ललाई प्रादि रंगस्वरूप परिणमता है [एवं] इस प्रकार [ज्ञानी] ज्ञानी [शुद्धः] स्वयं शुद्ध है [सः] वह [रागाधः] रागादि भावोंसे [स्वयं न परिणमते] स्वयं तो नहीं परिणमता [तु] परन्तु [अन्यः रागादिभिः दोषः] अन्य रागादि दोषोंके द्वारा [रज्यते] रागादिरूप किया जाता है ।
तात्पर्य—अपने आप अकेला परसंगरहित यह जीव रागादिरूप नहीं परिणमता है,