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________________ - -- ...--- ४७६ समयसार दर्शनस्याश्रयः, जीवादिपदार्थसद्भावेऽसद्धाबे वा तत्सद्भावेनैव दर्शनस्य सद्भावात् । शुद्ध प्रात्मैव चारित्रस्याश्रयः षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् ।। सगादयो बंधनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः । आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रगुन्नाः पुनरेवमाहुः ॥१७४।। ।। २७६-२७७ ।। भणइ भणति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । चारित्तं चारित्रं-द्वितीया एक० । तु-अव्यय । ववहारे व्यवहारः-प्रथमा एक० । आदा आत्मा-प्रथमा एक० । स्खु खलु-अव्यय । मझ मम--षष्ठी एक० । णाणं ज्ञान-प्रथमा एक० । आदा आत्मा-प्र० ए०। मे-षष्ठी एक० । दसणं दर्शन चरितं चारित्र आदा आत्मा पच्चक्लाणं प्रत्याख्यानं आदा आत्मा संवरो संवरः जोगो योगः-प्रथमा एक० । मे-पष्ठी एकवचन ॥२७६२७७।। परमयोग है । (११) निश्चयमोक्षमार्ग में स्थित प्रात्मावोंका नियमसे मोक्ष होता है, किन्तु व्यवहारमोक्षमार्गमें स्थित जीवोंके शुद्धात्मत्वाराधना न हो तो मोक्ष नहीं, इस कारण निश्चयनय प्रतिषेधक है। सिद्धान्त-(१) निश्चयमोक्षमार्गमें सहजशृद्धात्मत्वका प्राश्रय होनेसे शुद्धदशा प्रकट होनेका विधान है। दृष्टि---१- शुद्धनिश्चयनय (४६) । प्रयोग-शुद्धात्मत्वकी व्यक्तिके लिये सहजशुद्धात्मस्वरूपको प्राराधना करना ॥२७६२७७।। अब अगले कथनकी सूचनिकामें एक प्रश्न रखा जा रहा है---रागादयो इत्यादि । अर्थ--रागादिक तो बन्धके कारण कहे गये हैं और रागादिक शुद्ध चैतन्यमात्र प्रात्मासे भिन्न कहे हैं तो उनके होने में आत्मा निमित्त कारण है या कोई अन्य ? तो ऐसे पूछनेका प्राचार्य इस प्रकार उत्तर दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं-यथा] जैसे [स्फटिकमणिः] स्फटिकमणि [शुद्धः] स्वयं शुद्ध है वह [रागायः] ललाई प्रादि रंगस्वरूप [स्वयं न परिणमते] स्वयं नहीं परिणमता [तु] परन्तु [स:] वह [अन्यैः रक्तादिभिः द्रव्यः] दूसरे लाल आदि द्रव्यों के द्वारा [रज्यते] ललाई प्रादि रंगस्वरूप परिणमता है [एवं] इस प्रकार [ज्ञानी] ज्ञानी [शुद्धः] स्वयं शुद्ध है [सः] वह [रागाधः] रागादि भावोंसे [स्वयं न परिणमते] स्वयं तो नहीं परिणमता [तु] परन्तु [अन्यः रागादिभिः दोषः] अन्य रागादि दोषोंके द्वारा [रज्यते] रागादिरूप किया जाता है । तात्पर्य—अपने आप अकेला परसंगरहित यह जीव रागादिरूप नहीं परिणमता है,
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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