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________________ ३०४ समयसार निरोधः । श्रतो ज्ञानी नालवनिमित्तानि पुद्गलकर्माणि बध्नाति नित्यमेवाकर्तृ' त्वात्तानिनवानि न बध्नन् सदवस्थानि पूर्वबद्धानि ज्ञानस्वभावत्वात्केवलमेव जानाति ॥ १६६॥ । षष्ठी एकवचन | आसवणिरोहो आस्रवनिरोधः प्रथमा एक० । संते सन्ति द्वितीया एकवचन कृदन्त । पुणिबद्धे पूर्व निबद्धानि द्वितीया बहु । जाणदि जानाति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सो सः - प्रथमा एक । ते तानि द्वितीया बहु । अबंधतो अवधनन्- प्रथमा एकदन्त्र ।। १६६ ॥ सिद्धान्त - ( १ ) ज्ञानी जीवके शुद्धभावका निमित्त पाकर कार्याणवर्गणावों में कर्मत्वके श्रावका निरोध हो जाता है। (२) ज्ञानी पूर्वनिबद्ध कर्मोका मात्र जाननहार होता है, भोक्ता नहीं । दृष्टि - १ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय ( २४ब ) । २ - प्रभोक्तृनय (१६२) । प्रयोग- - ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्व के श्राश्रयसे संसारसंकटमूलकर्मास्त्रका निरोध हो जाता है, अतः सकल विकल्प परिग्रह त्यागकर एक ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वका आलम्बन लेना चाहिये ॥ १६६ ॥ अब राग द्वेष, मोह भावोंके ही पापनेा नियम करते हैं- [जीवन कृतः ] जीव के द्वारा किया गया [रागादियुक्तो भावः ] रागादियुक्त भाव [ बंधको भरिणतः ] नयीन कर्मका बंध करने वाला कहा गया है [तु] परंतु [ रागादिविप्रमुक्तः ] रागादिक भावोंसे रहित भाव [ प्रबंधक: ] बंध करने वाला नहीं है, [ केवलं ] केवल [ शायक: ] जानने वाला ही है । तात्पर्य - प्रज्ञानभाव के कारण जीवमें उमंगसे उठे रागादिकभाव मिध्यात्वादि प्रकृति का बंध करने वाले हैं । टोकार्थ - वास्तव में इस श्रात्मा में राग, द्वेष, मोहके मिलापसे उत्पन्न हुआा भाव (अज्ञान मय ही भाव ) श्रात्माको कम करनेके लिये प्रेरित करता है जैसे कि चुंबक पत्थर के सम्बन्धसे उत्पन्न हुआ भाव लोहेकी सुईको चलाता है, परन्तु उन रागादिकोंके भेदज्ञानसे उत्पन्न हुआ ज्ञानमय भाव स्वभावसे हो आत्माको कर्म करने में अनुत्सुक रखता है जैसे कि चुम्बक पाषाण के संसर्ग बिना सुईका स्वभाव चलने रूप नहीं है इस कारण रागादिकोंसे मिला हुम्रा प्रज्ञानमय भाव ही कर्मके कर्तृत्वमें प्रेरक होने के कारण नवीन बंधका करने वाला है, परन्तु रागादिवसे न मिला हुआ भाव अपने स्वभावका प्रगट करने वाला होनेसे केवल जानने वाला ही है, वह नवोन कर्मका किंचिन्मात्र भी बंध करने वाला नहीं है । भावार्थ – रागादिकके मिलाप से हुआ अज्ञानमय भाव ही कर्म ग्रंथ करने वाला है और रागादिकसे नहीं मिला ज्ञानमय भाव कर्मबंधका करने वाला नहीं है, यह सिद्धान्त रहा 1 प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानीके मालवका प्रभाव
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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