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प्रथ शानिनस्तदभावं दर्शयति-
श्रावाधिकार
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संवखरोहों ।
गत्थिदु श्रासवबंधो सम्मादिटटिस्स संते पुव्वणिबद्ध जायदि सो ते थबंधतो ॥१६६॥
श्राव बंध नहीं है, ज्ञानीके किन्तु श्रात्रवनिरुन्धन । वह तो पूर्वनिबद्धों को जाने भव्य नहि बांधे ॥१६६॥
नास्ति त्वास्रवबंध: सम्यग्दृष्टे रास्रवनिरोधः । संति पूर्वनिबद्धानि जानाति स तान्यबध्नन् ॥१६६॥ यतो हि ज्ञानिनो ज्ञानमयेर्भावैरज्ञानमया भावाः परस्परविरोधिनो अवश्यमेव निरुध्यते । ततोऽज्ञानमयानां भावानां रामद्वेषमोहानां श्रास्रवभूतानां निरोधात् ज्ञानिनो भवत्येव श्रस्रव
नामसंज्ञण, दु, आसवबंध, सम्मादिट्टि, आसवणिरोह, संत, पुर्व्वाणिबद्ध, त, त, अबंधंत । धातुसंश- अस सत्तायां, आ-सव स्रवणे, बंध बंधने, जाण अवबोधने । प्रातिपदिकन, तु, आसवबन्ध, सम्यदृष्टि, आस्रवनिरोध सत् पूर्वनिबद्ध तत् तत् । मूलधातु - असु भुवि, आ स गतौ, बन्ध बन्धने, निरुधिर आवरणे रुधादि, ज्ञा अवदोधने । पदविवरण - ण न-अव्यय । अस्थि अस्ति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । दुतु-अव्यय । आसवबंधी आसवबन्धः - प्रथमा एकवचन | सम्मादिद्विस्स सम्यग्दृष्टे:निष्कर्ष निकला था कि वे मानव प्रज्ञानीके ही होते हैं । अब यहाँ बताया गया कि ज्ञानीके उन प्राeater प्रभाव है ।
तथ्यप्रकाश -- ( १ ) ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होते हैं । ( २ ) ज्ञानमय भाव व प्रज्ञानमय भाव परस्पर विरोधी भाव है। (३) ज्ञानीके ज्ञानमय भावोंके द्वारा अज्ञानभाव निरुद्ध हो जाते हैं याने हट जाते है । (४) ज्ञानीके प्रज्ञानमय भाव रागद्वेषमोह हट गये हैं, श्रतः स्वनिरोध है । ज्ञानी श्रास्रवनिमित्तक पुद्गलकर्मों को नहीं बांधता । ( ५ ) कर्ता होनेसे शानी नवीन कर्मोंको बांधता नहीं और पूर्वबद्धकमको मात्र जानता है । (६) गुलस्थानानुसार ज्ञानियोंके मालवनिरोध समझना चाहिये । (७) द्रव्यकर्म, भावकर्म व नोकर्ममें प्रामत्वबुद्धि न होनेसे आत्माका नाम शामी हो जाता है । ( 5 ) अविरत सम्यग्दृष्टि ज्ञानी मिथ्यात्वादि ४१ प्रकृतियोंका प्रस्रव निरोधक है। (६) देशसंयमी ज्ञानी ५१ प्रकृतियोंका प्रात्रवनिरोधक है । (१०) प्रमसविरत ज्ञानी ५५ प्रकृतियोंका भ्रात्रवनिरोधक है । ( ११ ) श्रप्रमत्तविरत ज्ञानी ६१ प्रकृतियोंका श्रात्रवनिरोधक है । ( १२ ) श्रपूर्वकरण उपशमक क्षपक ज्ञानी ६२ प्रकृतियों का श्रावनिरोधक है । (१३) श्रनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक ज्ञानी ६८ प्रकृतियोंका प्रास्त्रनिरोधक है । (१४) सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक व क्षपक १०३ प्रकृतियों का प्रस्वतिरो-धक है । ( १५) उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय व सयोगकेवली ११६ याने एक कम सब प्रकृतियोंका प्रादनिरोधक है । (१६) प्रयोगकेवली व सिद्धप्रभु पूर्ण निरास्रव हैं ।