________________
५६०
समयसार रेणापोह्य पुद्गलादिपरद्रव्यं । अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्थापोह्यस्यापोहकः चेतयिता कि भवति कि न भवतीति ? तदुभयतत्वसंबंधो मीमांस्यते । यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य पद्भवति तत्तदेव भवति शल्पनो ज्ञान भन्दा माति इति शल्ल संबंधे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुदगलादिरेव भवेत् । एवं सति चेतयितुः स्व द्रव्योच्छेदः । न च द्रव्यांतर. संक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्रव्यस्यास्त्युच्छेदः । ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः । यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तहि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव चेतयिता भवति । ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति ? न खल्क्त्यश्चेतयिता चेतयितुः किंतु स्वस्वाम्यंशावेवान्यो । किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि । तहि न कस्याप्यपोहकः, अपोहकोऽपोहक एवेति निश्चयः । अथ व्यवहारव्याख्यानम् | यथा च संव सेटिका एकवचन क्रिया। जीवो जोव:-प्रथमा एक० । विजहइ विजहाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन प्रात्मा स्वयं पुद्गलादि परद्रव्यके स्वभावसे परिणमन नहीं करता हुआ और पुद्गलादि परद्रव्यको भी अपने स्वभावसे नहीं परिणमाता हुश्रा तथा पुद्गलादि परद्रव्य जिसको निमित्त है ऐसा अपने ज्ञानदर्शनगुणसे भरा परके त्याग करने रूप स्वभावके परिणामसे उत्पन्न होता हुआ, जिसको पुद्गलादि परद्रव्य निमित्त हैं ऐसे अपने ज्ञानदर्शनगुरासे परिपूर्ण परापोहनात्मक स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, तया जिसको चेतयिता निमित्त है ऐसा अपने स्वभावके परिणामसे उत्पन्न पुद्गलादि परद्रध्यको अपने स्वभावसे त्यागता है । ऐसा व्यवहार किया जाता है । इस प्रकार यह प्रात्माके ज्ञानदर्शनचारित्र पर्यायोंका निश्चय व्यवहार है। इसी प्रकार अन्य भी जो कोई पर्याय हैं उन सभी पर्यायोंका निश्चय व्यवहार जानना ।
भावार्थ-शुद्धनयसे आत्माका एक चेतनामात्र स्वभाव है। उसके परिणाम देखना, जानना, श्रद्धान करना और परद्रव्यसे निवृत्त होना है। वहां निश्चयनयसे विचार, तब प्रात्मा परद्रव्यका ज्ञायक नहीं कहा जा सकता, न दर्शक, न श्रद्धान करने वाला और न त्याग करने वाला कहा जा सकता है। क्योंकि परद्रव्यका और प्रात्माका निश्चयसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । जो ज्ञाता द्रष्टा श्रद्धान करने वाला, त्याग करने वाला, ये सब भाव हैं .सो स्वयं ही है। भाव्य-भावकका भेद कहना भी व्यवहार है और परद्रव्यका ज्ञाता, द्रष्टा, श्रदान करने वाला त्याग करने वाला कहना भो व्यवहार है। परद्रव्यका और आत्माका मात्र निमित्तनैमित्तिक भाव है, सो परके निमित्तसे कुछ भाव हुए देख व्यवहारी जन कहते हैं कि परद्रव्यको जानता है, परद्रव्यको देखता है परद्रव्यका श्रद्धान करता है और परद्रव्यको त्यागता है । इस तरह निश्चय व्यवहारके तथ्यको जानकर यथावत् श्रद्धान करना चाहिये ।