SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 642
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ५६१ श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुड्यादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममाना कुड्यादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन्ती कुड्यादिपरदन्यानिमित्तकेनात्मनः श्वेतगुगनिर्भरस्वभावस्य.परिणामेनोत्तरमाना कुज्यादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मन: स्वभावस्य परिणामेनोल्पद्यमानमात्मस्वभावेन श्वेतयतीति व्यवह्रियते तथा चेतयितापि ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणामयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोल्पद्यमानः पुद्गलादिपरद्रव्यं तयितुनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन जानातीति व्यवह्रियते । किच यथा च सैव सेटि. का श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुख्यादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममाना कुड्यादिपरद्रव्यं चामस्वभावेनापरिणमयंती कुड्यादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनः श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्व परिणामेनोत्पद्यमाना कुड्यादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः किया। सद्दहइ श्रद्दधाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-शुद्ध इत्यादि । अर्थ----जिसने शुद्ध द्रव्यके निरूपणमें बुदि लगाई है, और जो तत्त्वका अनुभव करता है, ऐसे पुरुषके अन्यद्रव्य एकद्रव्यमें प्राप्त हुमा कुछ भी कदाचित् नहीं प्रतिभासित होता । ज्ञान ज्ञेय पदार्थोंको जानता है सो यह भानके शुद्धस्वभावका उदय है । फिर अन्यद्रव्यके ग्रहण में प्राकुलित हुए लोक शुद्धस्वरूपसे क्यों चिगते हैं ? भावार्थ-शुद्धनयकी दृष्टिसे तत्त्वस्वरूप निरखनेसे अन्यद्रव्यका अन्यद्रव्यमें प्रवेश नहीं दीखता, फिर भी ज्ञानमें अन्यद्रव्य प्रतिभासित होता है सो यह ज्ञान की स्वच्छताका स्वभाव है, शान उनको ग्रहण नहीं करता । लौकिकजन प्रत्यद्रव्यका ज्ञानमें प्रतिभास देख अपने ज्ञानस्वरूपसे छूटकर शेयके ग्रहण करनेकी बुद्धि करते हैं सो यह प्रज्ञान है । प्राचार्य देव उनपर दयालु होकर कह रहे हैं कि ये लोक तस्वसे क्ष्यों घिगते हैं । अब इसी अर्थको काव्यसे और भी दृढ़ करते हैं— शुखद्रव्यस्वरस इत्यादि । अर्थशुद्ध द्रव्यका निज रसरूप परिणमन होनेसे क्या शेष अन्य द्रव्य उस स्वभावका हो सकता है ? अथवा क्या अन्यद्रव्यका स्वभाव हो सकता है ? जैसे चांदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है तथापि पृथ्वी चांदनीको कदापि नहीं होती। उसी तरह ज्ञान ज्ञेय पदार्थको सदाकाल जानता है तथापि ज्ञेय ज्ञानका कदापि नहीं होता है। भावार्थ-शुद्धनयकी दृष्टिसे देखनेपर किसी द्रम्पका स्वभाव किसी अन्य ट्रगरूप नहीं होता। जैसे चाँदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है परन्तु चादनीकी पृथ्वी कुछ नहीं लगती; उसी तरह ज्ञान ज्ञेयको जानता है परंतु ज्ञानका लेय कुछ नहीं लगता । प्रात्माका शान स्वभाव है इसकी स्वच्छतामें ज्ञेय स्वयमेव झलकते हैं
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy