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________________ निर्जराधिकार ३४५ न्यद्रव्योपभोगो बंधनिमित्तमेव स्यात्, स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेनिर्जरानिमित्तमेव इतर, यत्, सम्यग्दृष्टि, तत्, सर्व, निर्जरानिमिन । मूलधातु-- इदि परमैश्वर्य, त्रिति सजाने, डुकृञ् करणे, दृशिरप्रेक्षणे। पदविवरण-उवभोग उपभोग-द्वितीया एकवचन कर्मकारक । इंदियेहिं इन्द्रियः-तृतीया बहु० । दवाणं द्रव्याणाम्-षष्टी बहु० । अत्रेदणाणं अचेतनाना--पष्टी बहु । इदराणां इतरेषां-पष्टी रहा। टोका-विरागीका उपयोग निर्जराके लिए ही होता है । मिथ्याष्टिका जो ही चेतन अचेतनद्रव्यको उपभोग रागादिभावोंका सद्भाव होनेसे बंधका निमित्त ही होता है, वही उपभोग रागादिभावोंके प्रभावसे सम्यग्दृष्टिके निर्जराका निमित्त हो होता है ! इस कथनसे द्रव्य. मिर्जराका स्वरूप बताया गया है। भावार्थ----सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है और ज्ञानीके अज्ञानमय राग द्वेष मोहका प्रभाव है; इस कारण विरागीके जो इंद्रियोंसे भोग होता है उस भोगकी सामग्रीको यह ऐसा जानता है कि ये परद्रव्य हैं, मेरा इनका कुछ सम्बन्ध नहीं है । परन्तु कर्मके उदयके निमित्तसे हुई यह चारित्रमोहके उदयको पीड़ा बलहीन होनेसे जब तक सही नहीं जाती तब तक जैसे रोगी रोगको प्रच्छा नहीं जानता, परन्तु पोड़ा नहीं सही जानेसे पौषधि प्रादिसे इलाज करता है उसी तरह विषयरूप भोग अपभोग सामग्रीसे, यह कभी इलाज करता है । तब भी कर्मके उदय से तथा भोगोपभोगको सामग्रीसे ज्ञानीको राग द्वेष मोह नहीं है। कर्मका उदय होता है वह अपना रस देकर झड़ जाता है उदय पानेके बाद उस द्रव्यकर्मको सत्ता नहीं रहती निर्जरा ही है सम्यग्दृष्टि उदय में आये हुए कर्मरसको जानता है और फलको भी भोगता है, किन्तु राग द्वेष मोहके बिना भोगता है इस कारण कर्मका प्रास्रव नहीं होता, प्रास्रवके बिना विरागी सम्यग्दृष्टिके आगामी बंध नहीं होता। और जब प्रागामी बंध नहीं हुआ तब केवल निर्जरा ही हुई। इस कारण सम्यग्दृष्टि विरागीका भोगोपभोग निर्जराका ही निमित्त कहा गया है। तथा लक्षण भी यही है कि पूर्व द्रध्यकर्म उदयमें पाकर झड़ जाबें यही द्रव्यनिर्जरा है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व अधिकार, क्रमानुसार संवराधिकार पूर्ण हो गया । अब क्रमप्राप्त निर्जराधिकार प्राया है। संवरपूर्वक निर्जरा मोक्षमार्गको प्रयोजनभूत है सो संवर के बाद निर्जराका वर्णन किया है । सो द्रव्यनिर्जरा व भावनिर्जरा इन दो प्रकारको निर्जराओं में से इस गाथामें द्रव्यनिर्जराका स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है। . तथ्यप्रकाश-१-विरागका उपभोग निर्जराके लिये ही होता है, क्योंकि उस उपभोग में ज्ञानीको राग नही है, अतः उदयागत द्रव्यप्रत्यय नवीन कर्मबन्धके निमितभूत नहीं होते।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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