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________________ ३१४ समयसार त्यनुचरति च तावत्तस्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानावुद्धिपूर्वककलंकविपाकसद्धा. वात् पुद्गलकर्मबंधः स्यात् । अतस्तावज्ज्ञानं द्रष्टव्यं ज्ञातव्यमनुचरितव्यं च यावज्ज्ञानस्य यावान् पूर्णा भावस्तावान् दृष्टो ज्ञातोऽनुचरितश्च सम्यग्भवति । ततः साक्षात् ज्ञानोभूतः सर्वथा निरानव एव सः । संख्या निजबुधपूर्पर हितं राम राम स्वयं, वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं यत्-प्रथमा एक० । परिणमदे परिणमते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । जहण्णभावेण जघन्यभावेननहीं होता । सो इस जघन्यभावसे ही ऐसा जाना जा रहा है कि इसके अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक विद्यमान है, उसीसे बन्ध होता है वह चारित्रमोहके उदयसे है, अज्ञानमय भाव नहीं है। इसलिये ऐसा उपदेश है कि जब तक ज्ञान सम्पुर्ण न हो तब तक ज्ञानका ही ध्यान निरन्तर करना याने झानको हो जानना, ज्ञानको ही पाचरना । इसी मार्गसे चारित्रमोहका नाश होता है और केवलज्ञान प्रकट होता है । जब केवलज्ञान प्रकट हो जाता है तब सब तरहसे साक्षात् निराम्रय होता है । यहाँ अबुद्धिपूर्वक रागादिक होनेपर भी बुद्धिपूर्वक रागादिक न होनेसे ज्ञानी को निरानब कहा है । अबुद्धिपूर्वक रागका प्रभाव होने के बाद तो केवलज्ञान ही उत्पन्न होता, तब उसे साक्षात् सर्वप्रकारसे निरानन जानिये । अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-संन्य इत्यादि । प्रर्य-यह प्रात्मा जब ज्ञानी होता है तब अपने बुद्धिपूर्वक सभी रोगको निरंतर दूर करता हुअा और अबुद्धिपूर्वक रागको भी जीतनेके लिये बारंबार अपनी ज्ञानानुभवनरूप शक्तिका स्पर्श करता हुना तथा शामके समस्त पलटनोंको दूर करता हुआ ज्ञानके पूर्ण होता हुप्रा आत्मा शाश्वत निरास्रव होता है। भावार्थ-जब ज्ञानीने समस्त रागको हेय जाना तब उसके मेटनेके लिए उद्यमी होता हो है और जो प्रास्रव हो रहे हैं सो उनमें इसके पानव भावोंको भावनाका अभिप्राय नहीं है । अतः ज्ञानीको निरास्रव कहा गया है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि ज्ञानगुणका जघन्यभाव यथाख्यातचारित्रावस्थासे पहिले तक कर्मबन्धक्रा हेतु है । तो इस कथनपर यह जिज्ञासा होती है कि फिर ज्ञानी निराम्रब कैसे रहा ? इसी जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें करते हुए सिद्ध किया है कि ज्ञानी बुद्धिपूर्वक प्रास्त्रवभावका अभाव होनेसे निरास्रव है, किन्तु वहीं जब तक जघन्य ज्ञानरूप रहता है तब तक उसके किन्हीं प्रकृतियोंका प्रास्रव है । तथ्यप्रकाश-१-ज्ञानी बुद्धिपूर्वक रागद्वेषमोहरूप प्रास्रवभाव न होनेसे निरास्त्रव ही है । २-ज्ञानी होकर भी जब तक ज्ञान जघन्य भावरूप में परिणम रहा है तब तक अबुद्धिपूर्वक
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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