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प्रास्रवाधिकार स्वशक्ति न । उनिहुदन परिशिगन सकता जाग पूर्णोभवन्नात्मा नित्यनिरामयो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा ।।११६।। ।। १७२ ॥
सर्वस्यामेव जीवत्या द्रव्यप्रत्ययसंतती । कुतो निरालवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः |!११७॥ तृतीया एकः । णाणी ज्ञानी-प्र० ए० । तेण तेन-तृ० एक० । दुतु-अव्यय । बज्झदि वध्यते यतमान लट् अन्य पुराण एक० किया । पुग्गलकम्मेण पुद्गलकर्मणा-तृ० ए० । विविहेण विविधेन-तृतीया एक० ।। १७ ।। कर्मकलकविपाक होनेसे उसके कर्मबन्ध है । ३- ज्ञानीके कुछ काल तक जो कर्मबन्ध है वह संसारस्थितिक कर्मबन्ध नहीं है, तो भी ज्ञानी अयिकार परिपूर्ण सहज ज्ञानभावकी आराधना करके उस हीनताको दूर कर देता है। ४-वीतराग ज्ञानो होनेपर तो वह सर्वथा निराखव
सिद्धान्त-१-अविकार सहजसिद्ध चैतन्यभावरूप प्रात्मत्वको भावना होनेसे ज्ञानो निरालब है । २-चारित्रमोहके उदयसे ज्ञानीके भी ज्ञानका क्षोभ परिणाममय अघन्य भाव होता है । ३-ज्ञानी अविकार परिपूर्ण सहज ज्ञानस्वभावको अभेद पाराधनाके बलसे ज्ञानक होनभावको समाप्त कर देता है।
दृष्टि---१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ब)। २- उपाधिसापेक्ष प्रसुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। ३- उपादान दृष्टि (४६ ब)।
प्रयोग-ज्ञानमय प्रात्मस्वरूपका सम्यक् स्वाधीन अनाकुल सहजशुद्ध परिपूर्ण विकास प्राप्त करनेके लिये अविकार, परिपूर्ण सहजानन्दमय अन्तस्तत्त्वमें आत्मत्वको भावना हद बनाना चाहिये ।।१७२।।
अब सभी द्रव्यानवकी संततिके जीवित रहनेपर ज्ञानी निरास्रव किस प्रकार है ? ऐसा प्रश्न श्लोकमें करते हैं.-सर्वस्या इत्यादि। अर्थ-सभी द्रन्यास्रवकी संततिके जोत रहनेपर भी ज्ञानी नित्य ही निराखब कैसे रहा यदि ऐसी शङ्का हो तो सुनिये-~~[सम्यादृष्टे:] सम्यादृष्टिके [सर्वे] समस्त [पूर्वनिबद्धाः] पूर्व अज्ञान अवस्थामें बांधे गये [प्रत्ययाः मिथ्या स्वादि प्रास्रव [संति] सत्तारूप हैं वे [उपयोगप्रायोग्यं] उपयोगके प्रयोग करने रूप जैसे हों वैसे [कर्मभावेन कर्मभावसे [अनंति] बन्ध करते हैं। [तु] और [संति] सत्तारूप रहते हुए वे पूर्वबद्ध प्रत्यय उदय प्राये बिना [निरुपभोग्यानि] भोगनेके प्रयोग्य होकर स्थित हैं। [तु] लेकिन [तथा बध्नति] वे उस तरह बँधते हैं [यथा] जैसे कि [ज्ञानावरणादिभावः]. ज्ञानावरणादि भावोंके द्वारा [सप्ताष्टविधानि] सात आठ प्रकार फिर [उपभोग्यानि] भोगने योग्य [भवंति] हो जायें । [तु] और [यथा] जैसे [इह] -स लोकमें [पुरुषस्य] पुरुषक