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पूर्वं रंग
वंदित्सद्धि धुवमचलमणो गई पत्ते । वोच्छामि समयपाहु मिणमो सुलीभयिं ॥१॥
अथ सूत्रावतार:
वंदन करि सिद्धोंको, ध्रुव अचल अनूप जिन सुगति पाई । समयप्राभृत कहूंगा, यह श्रुतकेवलिप्रणीत श्रहो ॥१॥
वदित्वा सर्वसिद्धान् ध्रुवमचलामनुपमा गति प्राप्तान् । वक्ष्यामि समयप्राभृतमिदं अहो केवलिभणितम् । 'वंदित्' इत्यादि । अथ प्रथमत एव स्वभावभावभूततया अवत्वमवलंबमानामनादिभावांतरपरपरिवृत्तिविश्रान्तिवशेन चलत्वमुपगता मखिलोपमानविलक्षणाद्भुतमाहात्म्यत्वेनाविद्य मानोपम्यामपवर्गसंज्ञिक गतिमापन्नान् भगवतः सर्वसिद्धान् सिद्धत्वेन साध्यस्यात्मनः प्रतिच्छं
प्रकृतिशब्द--- सर्व सिद्ध, भुत्र, चल, उपमा, गति, प्र-आप्त, सम्-अय, प्राभृत इदम, अहो. केवल भणित। मूलघातु वदि अभिवादनस्तुत्योः पिधुगतो, चल कम्पन, गम्लु गो, अ से पहिले व्याख्याका सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन व शक्यानुष्ठान परख लेना श्रावश्यक है । इस छन्द में इन्हीं चारोंका प्रकाश है । सम्बन्ध - समयसारको व्याख्या करना है सो व्याख्यान व्याख्येय सम्बन्ध प्रकट है। अभिधेय – समयसारोक्त शुद्धात्मस्वरूप है। प्रयोजन --- समयसारको चर्चा व आराधना के बलसे परमविशुद्धि (निर्मलता ) प्राप्त करना है । शक्यानुष्ठानयाते किया जा सकने योग्य कार्य है हो ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जीवके विकारका निमित्तकारण पुद्गलकर्मविपाक है, स्वयं जीव नहीं, यदि यह उपादान जीव अपने विकारका खुद निमित्त कारण हो जाय तो विकार कभी नष्ट हो ही नहीं सकेगा, जीव विकारका नित्यकर्ता हो जायेगा । ( २ ) यह आत्मा सहज चैतन्यमात्रमूर्ति है याने अविकारस्वरूप है |
सिद्धान्त - ( १ ) विकार नैमित्तिक भाव है । ( २ ) आत्मा सहज शाश्वत चैतन्यमात्र
मूर्ति है ।
दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (२४) । २- परमशुद्ध प्रभेदविपयो अंतिम व्यवहारनय नामक द्रव्यार्थिकनय (१५), परमभावग्राहक द्रव्यार्थियनय (३०) |
प्रयोग - जैसे कि व्याख्याकार पूज्य श्री सूरि जी ने व्याख्या के कार्यका प्रयोजन अपनी परिणाम विशुद्धि निश्चित की है इसी प्रकार हम भी समयसार व आत्मख्याति व अन्य ग्रन्थों के स्वाध्याय का प्रयोजन अपने परिणामकी विशुद्धि निश्चित करें याने सहजशुद्ध अन्तस्तत्त्वको दृष्टिका पौरुप करके निर्मलता प्राप्त करें ।
टीकागत उत्थानिकाका अर्थ- अब सूत्रका अवतार होता है अर्थात् पूज्य श्री कुन्द