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समयसार
स्वरूपमें तन्मय ग्रात्मा प्रत्यगात्मा कहलाता है । ( २ ) प्रत्यगात्मा भी अनन्तधर्मात्मक है जैसे कि सभी पदार्थ अनन्तधर्मात्मक होते हैं । ( ३ ) अनन्त धर्मोमें अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशवत्त्व, प्रमेयत्व आदि साधारण गुण हैं । चेतनत्व असाधारण गुण हैं । अमूतत्व प्रादि अनेक साधारणासाधारण गुरण हैं । इन गुणोंके परिणमनरूप गुरगपर्यायें हैं । आकाररूप परिणाम न द्रव्यपर्यायें हैं। इन सबके अतिरिक्त एकत्व, अनेकत्व आदि अनेक धर्म हैं । इन सबमें तादात्म्यसमवेत अनन्तधर्मात्मक आत्मवस्तु है । ( ४ ) ग्रनन्तधर्मात्मक वस्तुका प्रतिपादन करने वाली द्रव्यवाणी अनेकान्तमयी मूर्ति है ।
सिद्धान्त - ( १ ) प्रत्यगात्मा प्रथवा श्रात्मा अनन्तधर्मात्मक है । ( २ ) आत्मा साधारण गुण, असाधारणगुण व पर्याय सामान्य आदि अनंत धर्मोसे अभिन्न स्वभाव वाला है । ( ३ ) आगम में अनन्तधर्मात्मक वस्तुका भेदविधिसे भी परिचय कराया है । ( ४ ) आगम में व्यवहारी जनोंके प्रतिबोधनार्थं भेदविधिसे भी प्रतिपादन है । ( ५ ) आगम में लौकिक जनोंको प्रभिप्राय, निमित्त व प्रयोजन बतानेके लिये एक वस्तुका दूसरी वस्तुमें कर्तृत्व आदि बतानेकी भाषासे याने उपचार भाषासे भी वन है ।
दृष्टि - १ - प्रमाणसिद्ध । २ - श्रन्वयव्याधिकनय (२७) | ३ - व्यवहारनय (५०६१) । ४ - व्यवहार (६२-१०२ ) । ५ -उपचार (१०३-१५२ ) ।
प्रयोग --- श्रात्मा अनन्तधर्मात्मक है उसे नय व प्रमाणसे भली प्रकार परखकर परसे विभक्त व अपने में तन्मय प्रत्यगात्माक तथ्यका ज्ञान सतत बनाये रहना चाहिये, यही जैनशासन के अध्ययनका प्रयोजन व फल है ।
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टीकागत प्रतिज्ञापक छन्दका अर्थ- शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति होनेपर भी मेरी परिणति परपरिपतिका निमित्तभूत जो मोहनीय नामक कर्म है उसके अनुभाव ( उदयविपाक ) से अतुभाव्य ( रागादि परिणाम ) की व्याप्तिसे निरन्तर कल्माषित ( मलीन) है, सो समयसारकी व्याख्या ही से मेरी इस अनुभूतिकी परमविशुद्धि होवे ।
भावार्थ --- टीकाकार पूज्य श्री अमृतचन्द्रजी सूरि कहते हैं कि मैं परमशुद्धद्रव्याथिक दृष्टिसे शुद्ध चैतन्यमात्र विकार श्रानन्दमय हूं, परन्तु द्रव्य कोई परिणमे बिना रहता नहीं, मैं भी परिणाम रहा हूं, लेकिन मोहनीय नामक कर्मके उदयविपाकका निमित्त पाकर रागादि भावरूप मलिन परिणम रहा हूं । अब मैं सहज शुद्ध प्रात्मद्रव्यका निरूपण करने वाले समयसार ग्रन्थराजकी व्याख्या कर रहा हूँ सो इस व्याख्या करनेका मेरा प्रयोजन यहीं है कि रागादि- मलिन अनुभूति दूर होवे और शुद्ध ज्ञानानन्दस्वभाव सहज श्रात्मतत्वकी अनुभूति प्रतीति चर्यारूप मेरी परमविशुद्धि होवे ।
प्रसंगविवरण - टीकाकार श्री सूरिजी समयसारकी व्याख्या करेंगे सो व्याख्या करने