SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 563
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१२ परमा को णाम भणिज वुहोणाउं सब्बे पराइए भावे । मज्झमिणति य वयणं जाणतो अप्पयं सुद्धं ॥३००॥ सब परमावोंको पर, आत्माको शुद्ध जानने वाला। कौन बुध यह कहेगा, परभावोंको कि ये मेरे ॥३०॥ को नाम भयो बुधो ज्ञात्वा सर्वान परकीयान् भावान । ममेदमिति च वचनं जाननात्मानं शुद्ध ।। ३००॥ यो हि परात्मनोनियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रजया ज्ञानी स्यात् स खल्वेकं चिन्मात्र भावमात्मीयं जानाति शेषांश्च सर्वानेव भावान परकीयान् जानाति । एवं च जानन कथं पर. भावान्ममामी इति ब्रूयात् ? १रात्मनोनिश्चयेन स्वस्वामिसंबंधस्यासंभवात् । अत: सर्वथा चिद्.. भाव एव गृहीतव्य: शेषाःसर्वे एव भावा. प्रहातव्या इति सिद्धांतः ।। सिद्धांतोऽयमुदात्तचित्तचरितर्मोक्षार्थिभिः सेध्यता शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः देवास्म्यहं । एते ये तु समुल्लसंति नामसंश-क, णाम, वुह, सम्ब, पराइस, भाव, अम्ह, इम, जि, य, वयण, जाणत, अप्पय, सुद्ध। । धातुसंज-भण कथने, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-किम्, नामन्, बुध, सर्व, परकीय, भाव, अस्मद्, इदम्, इति, च, वचन, जानत्, आत्मन्, शुद्ध । मूलधातु-भण शब्दार्थः, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण-को क:-प्रथमा एक० । णाम नाम-प्रथमा एक० अथवा अव्यय । भणिज्ज भणेत्-लिङ विधौ अन्य पुरुष एक दृष्टि--१-- कारककारकिभेदक सद्भूत व्यवहार (७३) । २- शुद्धनय (४६) । प्रयोग--प्रात्माको दर्शनशानोपयोग स्वलक्षणसे परखकर दर्शन ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्व का निर्विकल्प अनुभव करना ।। २६८-२६६ ।। अब परभावकी हेयता इस गाथामें कहते हैं--[सर्वान् भावान् परकीयान] सभी : परकीय भावोंको [ज्ञात्वा] जानकर [इदं मम ये मेरे हैं [इति च वचनं] ऐसा वचन : [आत्मानं] अपने प्रात्माको [शुद्ध जानन] शुद्ध जानता हुअा [क: नाम बुधः] कोन बुद्धिमान [भरोत्] कहेगा ? ज्ञानी पंडित तो नहीं कह सकता। तात्पर्य-शुद्ध प्रात्मतत्त्वको जानने वाला परभावोंको अपना नहीं मान सकता। टीकार्य-जो पुरुष प्रात्मा और परके निश्चित स्वलक्षणके विभागमें पड़ने वाली । प्रज्ञाके द्वारा ज्ञानी होता है, वह पुरुष निश्चयतः एक चैतन्यमात्र अपने भावको तो अपना । जानता है और बाकीके सभी भावोंको परके जानता है । और ऐसा जानता हुप्रा ज्ञानी परके भावोंको 'ये मेरे हैं' ऐसा किस तरह कह सकता है ? क्योंकि पर और आपमें निश्चयसे स्वस्वामिपनाका सम्बन्ध असम्भव है । इस कारण सर्वथा चिद्भाव ही एक ग्रहण करना चाहिये, अवशेष सभी भाव त्यागना चाहिये, ऐसा-सिद्धान्त है । भावार्थ-जैसे लोकमें यह न्याय है कि सुबुद्धि और न्यायवान पुरुष परके धनादिकको अपना नहीं कहता, उसी तरह सम्यग्ज्ञानो
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy