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पूर्व रंग सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहेक ।
नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ॥३०॥ एवमेव च मोहपदपरिवर्त्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुरिणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्माप्यूह्यानि ।।३६।। बचन क्रिया । मम-षष्ठी एक । कः-पुल्लिग प्रथमा एक० । अपि अव्यय । मोह:-प्रथमा एक० । बुध्यतेवर्तमान लट् अन्य पुरुष एक दिवादि क्रिया । उपयोग:-प्रथमा एकः । एष-अव्यय । अहं-प्रथमा एका० । एक:--प्रथमा एक० । तं-द्वितीया एक० । मोहनिर्ममत्व-द्वितीया एक० । समयस्य-ठी ए७ । विज्ञायकाःप्रथमा बहु० कर्ता या कर्तु विशेषण । विदन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया ।।३६॥ पुथक सोलह गाथा सूत्रों द्वारा व्याख्यान करम' और इसी जस्ले शो पायी विकार लेना।
प्रसंगविवरण—इस स्थल में निश्चयस्तुतिसे सम्बंधित परभावके विवेककी बात चल रही थी । अनन्तरपूर्व गाथामें दृष्टान्तपूर्वक परभावविवेकके परिणामको बात कही थी । अब इस गाथामें परभावसे विवेक करनेके याने जुदा होनेके उपायके निर्देशनमें भावभावके विवेक की रीति बताई गई है।
तथ्यप्रकाश-(१) द्रव्यमोह उपादानतया भावक पुद्गलद्रव्यके द्वारा रचा गया है । (२) भावमोह भावक पुद्गलद्रव्य के द्रव्य मोहका प्रतिफलन होनेसे नैमित्तिक है । (३) द्रव्यमोह तो उपादानतया प्रकट परभाव हैं । (४) भावमोह नैमित्तिक होनेसे परभाव है । (५) प्रत्येक पदार्थ सदाकाल ही अपने आपके स्वरूप में ही रहा करता है।
सिद्धान्त – (१) जीवदशा व पुद्गलदशामें परस्पर निमित्तनमित्तिक भाव होनेसे द्रव्यमोह भी नैमित्तिक है व भावमोह भी नैमित्तिक है । (२) निमित्त व नैमित्तिकका परिचय दोनोंको परभाव जानकर उनका अपोहन करके शुद्ध द्रव्यका उपादान करनेके लिये है ।
दृष्टि-१- उपाधिस्सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । २- विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनय (४८)।
प्रयोग-द्रव्यमोह, भावमोह व भावमोहके प्राश्ररभूत विषयसंग इन सबसे विभक्त चितशक्ति मात्र मैं सहज परमात्मतत्त्व हूं, ऐसी अन्तः पाराधना रहनी चाहिये ।।३६॥
प्रागे ज्ञेयभावसे भेदशान करनेकी रीति बतलाते हैं- [बुध्यते] ऐसा जाने कि [धर्मादयः] ये धर्म मादि द्रव्य [मम न सन्ति] मेरे कुछ भी नहीं लगते [अहं] मैं तो [एक उपयोग एव] एक उपयोग ही हूं [२] ऐसा जाननेको [समयस्य विज्ञायकाः] सिद्धान्त व स्वपरसमयरूप समयके जानने वाले [धर्मनिर्ममत्वं] धर्मद्रव्यसे निर्ममत्व [विन्दन्ति ] कहते हैं ।
तात्पर्य --अपनेको धर्मादि द्रव्यों से अत्यन्त विविक्त परखकर एक उपयोगमात्र अन्त