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________________ ४७ समयसार केवल: किलात्मा परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणामले परद्रव्येव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः परिणम्येत, इति तावद्वस्तुस्वभावः ।। न जातु रागाद्य. अन्य, तु. तत्. रागादि, दोष । मूलधातु-- परि णम प्रवत्वे शन्दे च भ्वादि, रंज रागे दिवादि । पदविवरण--जह यथा-अध्यय । फलिहमणी स्फटिकमणिः-प्रथमा एक० । सुद्धो शुद्ध:--प्रथमा एक० । ण न-अव्यय । सयं स्वयं-अव्यय । परिणमइ परिणमते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । रायमाईहि रागाद्यैःतृतीया बहुवचन । रंगिजदि रज्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन कर्मवाच्य क्रिया । अयोहि अन्यैःद्रव्य कर्मप्रकृतिविपाकके निमित्तसे परिणमता है । जैसे कि स्फटिकमणि प्राप तो केवल एका- . कार स्वच्छ शुद्ध ही है, परन्तु जब परद्रव्यको ललाई आदिका डंक लगे तब ललाई प्रादिरूप परिणामता है । ऐसा यह परिणाममान वस्तुका ही स्वभाव है कि अशुद्ध उपादान अनुकूल निमित्तके सान्निध्य में ही विकाररूप परिणमता है। अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं--न जातु इत्यादि । अर्थ-प्रात्मा सूर्यकान्तमणि की तरह अपने रामादिकके निमित्त पादको कभी नहीं ना होता । उस प्रात्मामें रागादिक होनेका निमित्त परद्रव्यका सम्बन्ध ही है । यह वस्तुका स्वभाव उदयको प्राप्त है किसीका किया हुआ नहीं है । भावार्थ--जैसे सूर्यकान्तमरिण स्वयं परसंगरहित होकर ललाईरूप नहीं बनता, किन्तु लालडंकका सन्निधान होनेपर ललाईरूप परिणमता है अथवा सूर्यकान्तमरिण अपने पाप अग्निरूप नहीं होता, किन्तु सूर्यबिम्बका सान्निध्य होनेपर अग्निरूप परिणमता ऐसे हो प्रात्मा रागप्रकृतिकर्मविपाकोदय होनेपर ही रागादिरूप परिणमता है। अब कहते हैं कि ऐसे वस्तुस्वभावको जानता हुअा ज्ञानी रागादिकको अपने नहीं करता--इति वस्तु इत्यादि । अर्थ--- इस तरह अपने बस्तुस्वभावको ज्ञानी जानता है, इस कारण वह शानो रागादिकको अपने नहीं करता । अतः ज्ञानी रागादिका कर्ता नहीं है ।। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें निश्चयनयकी प्रतिषेधकता व व्यवहारनयको प्रतिषेध्यताका संदर्शन था जिससे ग्रह ध्वनित हुआ कि समस्त रागभाव प्रतिषेध्य है। अब इस गाथामें बताया है कि रागभावमें स्वयं प्रास्मा निमित्त नहीं है, कोई पर-उपाधिका संग ही निमित्त है तभी यह सुगमतया प्रतिषेध्य है। तथ्यप्रकाश-(१.) सभी पदार्थकी भौति स्फटिकमरिण व प्रात्मा स्वयं परिणमनस्वभावी है । (२) स्फटिकमरिण व प्रात्मा स्वयं शुद्धस्वभावी होनेसे रागादिमें निमित्त नहीं हैं । (३) स्फटिक व प्रात्मा रागादिमें निमित्त न होनेसे स्वयंसे हो रागादिरूपसे नहीं परिणमते ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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