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है । क्योंकि प्रत्येक व्योंका केवल स्व स्वको पर्यायोंसे तादात्म्य है । यहाँ शुद्धस तात्पर्य परसे भिन्न व स्वके स्वभावमय से है । पर्याय व शक्तिभेदको गौणता करके अभेद स्वभावकी दृष्टि में यह संवेद्य है।
आत्मतत्त्वका व परद्रव्यका कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य निज-निज सलात्मक ही रहता है। इसी कारण पात्मा व परदर में सर्तसम्बना भी नहीं। फिर आत्मा परहस्यका कर्ता कैसे हो सकता है ? और इसी कारण आत्मा परद्रव्यका भोक्ता भी कैसे हो सकता है ? जिनके आशय में पर-द्रश्यका कर्तृत्व-भोवतृत्व समाया हुआ है यह सब उनके अज्ञानभायकी महिमा है। जैसे दृष्टि (नेत्र) दृश्यमान पदार्थ से अत्यन्त भिन्न है। वह दृश्य वस्तुको न तो करती है और न भोगती है, केवल देखती मात्र है, क्योंकि यदि करे तो अग्निको देखने से जल जाना चाहिये, यदि भोग तो अग्निको देखनेसे नेत्र तप्त व भस्म हो जाना चाहिये। इसी प्रकार ज्ञान भी एक दृष्टिही तो है वह किसी परपदार्थको न तो करता है और न भोगता है। वह तो तत्वज्ञान के कारण पर पदार्थको अहं व मम रूपसे अनुभव नहीं कर सकने के कारण केवल जानता है, चाहे बन्ध हो, मोक्ष हो, उदय हो या कुछ हो । यहाँ यह निर्णय कर लेना आवश्यक है कि शुद्ध आत्मतत्व अथवा समयसार अभेद शुद्ध चैतन्य स्वभाव है। वह अनादिसे अनन्त काल तक एकस्वरूप है। यही वह सहज सिद्ध भाव है जिसका अवलंबन मोक्ष मार्ग है। यह तो बंध मोक्ष पर्यायसे परे है। इस परम पारिमाणिक भाव स्वरूप समयसारका ध्यान, भावना, दृरिट, आश्रय और अधर्मबन मोक्षमार्ग है। जीवमें यह अनादिसिद्ध भाव है, किन्तु इसकी दृष्टि बिना प्रकृतिस्वभाव (रागादिभाव) में स्थित होकर विपरीताशय होकर यह अज्ञानी जीव कर्मका कर्ता कर्मफलका भोक्ता होता है । जब प्रकृति-स्वभावमें व आत्मा में भेदज्ञान करता है तब पता अभोत्ता हो जाता है।
स्यावाद अब समस्या एक सुलझनेको आ जाती है कि राग-द्वेषादिभावोंका का कौन है? यूदगलकम तो कर्ता नही है क्योंकि पुद्गलकर्म परद्रव्य है । परद्रव्य अन्य-परके गुण पर्यायका न कर्ता है और न अधिकारी है। आत्मा भी राग-द्वेषाधिका कर्ता नहीं; क्योंकि यदि आरमा राग-द्वषादि करे, तो मात्मा तो नित्य है फिर तो आत्मा रागादिका नित्यकर्ता हो जायगा ! अतश्च मोक्षका अभाव हो जायगा । रागादिक विषयात पदार्थ भी रागादिक कर्ता नही। इस प्रकार रागादिका का न तो आत्मा.ही है और न कर्म ही है और न बिषय हैं। फिर भी समादि परिण मन तो होता है। इस समस्याको सुलझाने के अनेकोंने अनेक प्रयत्न किये है, किन्तु एक सन्धि नियत किए बिना यह समस्या नहीं मलझती। वह सन्धि है निमित्त-नैमित्तिक भाव । अनित्य कर्मोदयको निमित्त पाकर अनित्य रागादि होते हैं। अनित्य रागादिकका निमित्त पाकर अनित्य कर्मचन्ध होता है। फिर बद्ध अनित्य कर्मोदयका निमित्त पाकर अनित्य रागादि होते है। यह परम्परा चलती रहती है, जबतक कि प्रखर भेद-विज्ञान न हो जाय । यहाँ बन्धमें निमिन आत्म-विभाव है। उपादान कारण कार्माणवर्गणा है तथा रागादिमें निमिस कर्मोदय हैउपादान-अध्यवसित आत्मा है। निमित्तनैमित्तिक भावकी इस सन्धिका होना भी अज्ञानकी महिमा है और आत्माका कर्ता भोक्ता बनना भी अजामकी महिमा है।
इस प्रकरण से ऐसा नहीं समझना चाहिए है कि आत्मा भिन्न वस्तु है और वृत्तियो सर्वथा भिन्न वस्तुतत्व है। क्योंकि ऐसा समझने से दो प्रकारको पृथक-पृथक् विचारधाराएं वहने लगती है। (१) आत्मा सर्वधा अदिकार है। विकार तो किसी अन्य से है उसे कोई जीव कहते हैं, कोई मन कहते हैं अथवा विकारको प्रकृतिका कार्य कहते हैं। (२)
आत्मा कोई एक है ही नहीं, ये वृत्तियां ही आत्मा है सो करने वाला और है और भोगने वाला और है। इनपर विचार करना आवश्यक है। जीवका मत चेतन है या अचेतन ? यदि चेतन है तो यही तो आत्मस्वरूप है, फिर तो भारमाके नामान्तर ही हुए यदि अचेतन है तो जानने, देखने और विचारने वाले पदार्थको घबड़ाने अथवा कल्याणकी क्य जरूरत? प्रकृति नाम कर्म का है। रागादि विकार यदि प्रकृतिका कार्य है, तो "कारण-सदर्श कार्य"। इस न्यायसे