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नात्पर्य यह है कि निज आत्माको जायकस्त्रभावरूप स्वीकार किये बिना कितने भी विकल्प किये जायें उनसे मुक्ति नही होती. किन्तु बन्ध ही होता है। मैं साधु हूँ मुझे दया करनी चाहिये, सत्य बोलना चाहिये, परोह सहना चाहिये, व परीवह भी ऐसी सहे कि कोल्हूमें पिल जाय फिर भी उफ या क्रोध न करें। इन सब करामातोंके बावजूद भी चूँ कि अपनेको साधुपर्यायरूपमें ही प्रतीत किया है, जायकस्वरूपके अनुभव से अनभिज्ञ है, अतः पुण्य बंध तो होता है और मिथ्या आषाय के कारण वाप बंध भी होता है, किन्तु धर्मभाव, संवर व निर्जरा भाव नहीं होता है । अतः दुखों से मुक्ति पाने के लिए निज शुद्ध सनातन चित्स्वरूपका प्रज्ञा द्वारा परिचय प्राप्त करना चाहिये ।
मोक्षाधिकार
आरिमा और बंधको यो रूप अर्थात् अलग अलग कर देनेका नाम मोक्ष है। आत्मा स्वभावरूप है। बंध विभावरूप है। स्वभावका विभाव परिणमन न रहकर स्वभावपरिणमन रहे, यही अवस्था मोल तत्वमें है । fear ही पुरुष बंधक चिन्तनपरिणामको मोक्षका कारण मानते हैं। वह ठीक नहीं; क्योंकि जैसे कि बेड़ी में बंधा हुआ पुरुष astrध स्वरूपको जानने मात्र से या बेडीबंधकी चिन्तामात्र से छुटकारा नही पाता, किन्तु बेड़ कटने से अर्थात् अलग होनेसे हो छुटकारा पाता है। इसी प्रकार कर्मबन्धसे बद्ध आत्मा बन्धका स्वरूप जाननेमात्रसे या अपायविदयधमंध्यान में ही बुद्धि लगाते मावसे कर्ममुक्त नहीं होता, किन्तु बन्ध अर्थात् विभावपरिणमनके अलग करनेसे ही कर्ममुक्त होता है । बन्धच्छेदका उपाय क्या ? प्रज्ञा । नियत स्वलक्षणका जो अबलम्बन करे ऐसे विज्ञानको प्रज्ञा कहते हैं । पहिले प्रज्ञासे यह निर्णय किया जाता है कि आत्माका स्वमश्रण चैतन्य है जो कि मात्मामें अनादि अनन्त तादात्म्यरूपसे है तथा बारमातिरिक्त किसी भी पदार्थ में कभी नहीं रहता; और वन्धका स्वलक्षण सगादिक है जो कि चैतन्यचमत्कार से अन्य तथा आत्मा में उपाधि-संयोगवश क्षण-क्षणको प्रतिभासते हैं व नष्ट होने का स्वभाव विकारक जान कर बन्धसे विश्वत हुआ जाता है और शुद्ध आत्मतत्वको आत्मस्वभाव जानकर उसको ग्रहण किया जाता है। यह ग्रहण अभिन्न चेतन-क्रिया द्वारा अभिन्न पकारक रूप में होता है । जैसे कि मैं चेतता हूँ, चेतयमान होता हुआ चेतता हूं, वेतमानको घेतता हूं, चेतमानके द्वारा चेतला हूं. चेतयमानके सिए चेतता हूँ, चेतयमान से चेतता हूं, वेतयमानमें चेतता हूं। पश्चात् अभेद चैतन्यको प्रस्तर उपासना में अभिन्न षट्कारक के सूक्ष्म विरूपका भी निषेध करके ( कि मैं न बेतता हूँ. न तयमान होता हुआ चेसता हूं, न चेतयमानको तता हूँ अवि रूपसे निषेध करके ) सर्वविशुद्ध चिन्मात्र हूं, ऐसा अनुभव होता है। इसी शुद्ध अनुभव के बल से बन्धस्छेद होता है; क्योंकि परभावका ग्रहण करना हो अपराध अर्थात् राम्र ( आत्मसिद्धि) से दूर रहने का भाव था. इस अपराधके दूर होनेपर बन्धको शंका ही सम्भव नहीं है ।
सर्वविशुद्धचिन्मात्र के अनुभवका परिणमन व्यवहार प्रतिक्रमण आदि भाव से भी उत्कृष्ट है और वस्तुतः प्रतिक्रमणादि व अज्ञानी जनों के अतिक्रमणादिसे विलक्षण यह सहज अप्रतिक्रमणादि तो अमृत है और वे दोनों विष है। सहज अतिक्रमणादि रूप तृतीय भूमिका सम्बन्ध हो द्रव्य प्रतिक्रमणादिको अमृतपना व्यवहारसे सिद्ध कराता है । इस प्रकार सर्व विशुद्धचिन्मय के अनुभवका परिणमन सर्वोत्कृष्ट परिणमन और यही मोक्षका हेतु है । सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार
नवारक, अब अन्तमें सबके आधार भूत उसी पारिणामिकभावका पुनः विस्तारसे इम अधिकार में दर्शन किया गया है जिसकी कि सूचना पीठिकामें की गई थी।
सम्यग्दर्शनका विषय शुद्धद्रव्य है। ज्ञानको समीचीनता भी शुद्ध द्रव्यके परिचयसे है। सम्यक्चारित्रका स्वरूप लाभ भी शुद्ध पके स्पर्शसे है । अतः बूंद अर्थात् आध्यात्मिक विकासका आश्रय ही शुद्ध आत्म-तम्ब है। यह शुद्ध मात्म-तत्त्व सर्व-विशुद्ध ज्ञानस्वरूप है अर्थात् यह शुद्ध बारमद्रव्य न तो किसीका कार्य है न किसीका कारण
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