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प्रभावना--ज्ञानशक्तिके विकाससे सम्यग्दष्टि प्रभावनाकारी होता है। अत: उसके अप्रभावमाकृत धन ही है; किन्तु ज्ञानप्रभावक होने से निर्जरा ही होती है। ज्ञानी पुष्प अपनी अलौकिक आध्यात्मिक बांके कारण पूर्ववस कर्मोकी निर्जरा करता है। वह निर्जरा मोक्ष तत्वका साधन है।
निर्जराका फल मोक्ष है । 'मोक्ष बन्धपूर्वक है। अतः मोक्षतस्यके वर्णनसे पहले बन्धतत्वका वर्णन किया जा रहा है। बन्ध किस कारण होता है वह व्यक्त करने के लिये एक उदाहरण है। जैसे कोई मल्ल देह में तेल लगागर धूलभरी भूमिपर स्थित होकर तलवारसे कदली वंश आदि पेड़ों को काटता है। इस अवमरमें उसका देह धूलसे लिप्त हो जाता है। यहाँ विचार करो कि वह धल क्यों चिपट गई? क्या धलभरी भमिमें स्थित होने से धुल चिपट गई? नहीं । यदि धूलभरी भूमिमें स्थिति होने के कारण धूल विषष्टी होती तो अन्य कोई मल्ल जिसके देह में तेल न लगा हो वह उसी भूमिमें वैसा ही व्यायाम करे उसके तो नहीं निपटती। क्या शस्त्र चलाया इस कारण घूल विपटी नहीं, दूसरा भी तो वही शास्त्र चलाता है उसके सो नहीं चिपटती। क्या अक्षोंका घात करता है इस कारण चिपटी? नहीं, दुसरा महल भी तो घात करता है उसके क्यों नहीं चिपटती। निस्कर्ष यह है कि इन बाह्म साधनोंसे धन विपटी, किन्तु जो देह में स्नेह (तेल) लगा है, उसके कारण धूल चिपटी। इसी प्रकार अज्ञानी जीव रागादि करता हुआ कार्माण-दर्गणाओंसे व्याप्त लोकमें मन वचन कायकी चेष्टा करता हुआ अनेक प्रकारके साधनोंसे सजीव अजीब पदार्थोंका धात करता हुआ कर्मरो बंध जाता है। यहां विचार करो कि कर्म बंधने का कारण क्या है ? क्या यह बीव कार्माण वर्गणान्याप्त लोकमें स्थित है इस कारण कर्भ-बंध हुआ ? नहीं क्योंकि अरहंत सिद्ध भी तो ऐसे ही नोकमें हैं, उनके तो कर्मबंध नहीं होता। क्या मन वचन कायकी मेष्टा कर्मबंधका कारण है ? नहीं, क्योंकि ग्यारहवे, बारहवें, तेरहवें गूणस्थान वालोंके भी योगचेष्टा है, उनके तो कर्म नहीं बंधता। क्या अनेक उपकरण उसके पास है। इसलिये कर्म बंध होता है? नहीं, अरहंतदेवके समीप समवसरणादि महान वैभव है, उनके तो बंध नहीं होता। क्या घात होनेसे कर्म बंध होता है? नहीं, समिति-पूर्वक क्रिया करने वाले मुनि-देहसे सक्षम जन्तु-घात सम्भव है, उनके तो बन्ध नहीं होता। निष्कर्ष यह है, कि इन बाह्य साधनोंसे कर्मबन्ध नहीं होता, किन्तु उपयोग में जो रागादि (स्नेह) को ले जाना है वह कर्मबन्धका कारण है।।
जो ज्ञानी रागादिको उपयोगभूमिमें चले जावे, ज्ञानस्वरूप रहे, यह कमसे नहीं बंधता। यहां विशेष यह जानना चाहिये कि रागसे जो बन्ध होता है वह संसारको दृद नहीं करता, किन्तु रागमें राग होने से जो बध होता है वह संसारको दृढ़ करता है । विकारमें लगाव होना मोह है, मोह कृतवन्ध संसारको दद करता है।
अजानी जीवकी मान्यता परतन्त्रताकी रहती है। अज्ञानीके ऐसे भाव होते हैं कि मैं दूसरोंको मारता हूं, दूसरोंसे मारा जाता है, मैं दूसरोंको जिलाता हू, दूसरोंके द्वारा में जिलाया जाता हूं, मैं दूसरोंको सुख दुःख देला है, दूसरे मुझे सुख दुःख देते इत्यादिः किन्तु यह सब भाव मिश्या है। जीवोंका मरण उनके ही आयुकर्म के अयसे होता है । जीवोंका जीवन उनके ही आयु-कर्म के उदयरो होता है। सुख-दुख भी उनके ही कर्मके उदयसे होता है। किसी के विकल्पसे किसी अन्य जीवकी परिणति नहीं होती, विकल्प करके प्राणी कर्मबन्ध ही करता है। उन विकल्पोमें यदि वे विकल्प पापसम्बन्धी हो तो फापका बन्ध होता है । यदि दया त ता आदिके शुभ विकल्प हो तो पुका बन्ध होता है। बाह्य पदार्थ वन्धका कारण नहीं है। बन्धका कारण तो विकल्प है। विकल्पके आश्रयमन वाह्य पदार्थ हैं।
भान-स्वभाव का अनुभव बन्धका टालनेवाला है ; परमार्थभूत ज्ञानभावके आश्रय बिना दुर्धर व्रत, तए भी निर्वाणके साधन नहीं होते, किन्तु कर्मबन्धके ही हेतु होते हैं। पर्यावद्धि जबतक रहती है तबतक जीव संसारका ही पाप होता है। मोक्षमागंकी सिद्धि उस ज्ञानी के कैसे हो सकती है।