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जाता है। इसी तरह अज्ञानी बीय राग-रससे लिप्त हो जाने की प्रकृति वाला है, सो कममध्य पड़ा हुआ कर्म से निप्त रहता है।
ज्ञानीका मुख्य चिन्हें काथनाका अभाव है। कोई सोचे...मज्ञानी तं, मुझे भोग भी कर्मबंध नहीं होता, अरे यदि कामना बनी हुई है तो उसक बने रहने से कर्मबंधमें फरक नहीं आता, कर्मबन्ध होता हो है : ज्ञानीके भोग में भी कर्मबन्ध नहीं यह मात्र कह की चीज नहीं है । ज्ञानरूप प्रसौसिके परिणगनेकी करामात है।
सभ्यदृष्टिका परिणमन कैसे होता है इस विषधको संक्षेपमें कहा जाय तो उसका अब्द अंगों द्वारा वर्णन होता है । सम्पष्टिके अंग ८ है-(१) निःशंकित (२) नि.कानिस (३) निविचिकिस्सिन (४) अमूदृष्टि (५.) उपमूहन (६) स्थितिकरण () वात्सल्य और (4) प्रभावना ।।
नि:शंकित.- ज्ञानी आत्मा गाता प्रकार के भय रहित होने में बयथार्थ बम्न स्वरूपकी यथार्थ प्रतीतिके कारण सदा निःशंफ रहता है। जानी जीवको इहलोकभय नहीं रहता कि इस जीवन का कसे गुजारा होगा, क्योंकि शांनीको दष्टि है कि मेरा लोक तासन्य है इसका मुजारा याने परिणमन तो निर्वाध होता ही रहेगा। ज्ञानी जीवके परलोकभय नहीं रहता कि परलोक में मेरा कैसे गुजारा होगा; क्योंकि ज्ञानी की दृष्टि है कि चैतन्य हो मेगा परलोक है उसका गुजारा भी निर्वाध होगा। ज्ञानी जीवक वेदनाभय नहीं होता कि इस रोगसे मेरी वेदना (अनभूति) कैसी होगी; क्योंकि ज्ञानीकी दृष्टि है कि यह अविचल ज्ञान स्वयं देखा जा रहा है, यही मेरी वेदना है, यह अन्य वस्तुसे नहीं होती। मानी जीवके अरक्षाभय नहीं होता कि मेरी कोई रक्षा नहीं है, कभी मेरा नाश न हो जाय; बयोंकि जानी आत्माको दुष्टि है कि जो सत् है ससका नाश नहीं होता, सह स्वयं सुरक्षित है, मैं भी सत् हूं: अतः सुरक्षित हूं । ज्ञानी जीवके अगुप्तिभय नहीं होता कि मेरा कोई गुप्त स्थान (किला आदि सब स्थान) नहीं है, कोई मुझे बाधा देने न आ जाये। क्योंकि ज्ञानी जीवकी दृष्टि है कि मेरा स्वरूप ही मेरी गुप्ति हैं उसमें परका प्रवेश ही नहीं हो सकता । ज्ञानी जीव के भरण-भय नहीं कि मेरे प्राण नष्ट न हो जायें, क्योंकि ज्ञानी आत्माकी यह दृष्टि है कि मेरा प्राण तो ज्ञान है, यह कभी नष्ट नहीं हो सकता । ज्ञानी जीवके आकस्मिक भय नहीं होता, कि मुझपर अकस्मात कोई आपत्ति न आ जाये क्योंकि ज्ञानी जीद की यह दृष्टि है कि मैं अनादि, अनन्त, अचल, स्वत:गिद्ध, ज्ञाममात्र हूं, मुझमें दूसरेका आक्रमण नहीं हो सकता । ज्ञानी जीवके वस्सुस्वरूपकी अविचल प्रतीति है, उसके भय कहाँस हो? वह तो नि:शंक स्वयं सहज ज्ञानका अनुभव करता है। इसलिये उसके शंकाजनित बंध नहीं होता, किन्तु निःशंक होनेसे निर्जरा ही होती है।
निःकांक्षित--सम्यग्दष्टि जीबके सब प्रकारके कर्मों में कर्म के फलोंमें और भोगों में वाञ्छा नही रहती है, इसलिये उसके कांक्षाकृत बन्ध नहीं होता किन्तु निष्कांक्ष होनेसे निर्जरा होती है।
निविचिकित्सित-सम्पन्दष्टि जीवके धर्मात्माओं के अनि शरीरकी सेवा में, धर्मात्माओं व समस्त वस्तुछो-में ग्लानि नही रहती और न कर्मविपाकस्वरूप सधा आदि विपत्तियों में वेदरूप परिणाम रहता है। इसलिये उसके विचिकित्साकृत बन्ध महीं होता; किन्तु निविचिकित्स होने से निर्जरा होती है।
समष्टि ...-सम्परिट जीवके बम-विक किसी भी कभावमें व भाव वालों में समोह नही होता। इसलिये उसके मुष्टिकृत बन्ध नहीं है। किन्तु अयुष्टि होनेसे निर्जरा ही होती है।
स्थितिकरण-उन्मार्गमें जाते हये स्वयको उन्माममें जानेसे रोक लेने व स्वयको स्वरूप में स्थित कर देनेसे एवं परको भी घर्भमें स्थित पर देने के निमित होनेसे ज्ञानी स्थितिकरण-युवत होता है, इसलिये उसके मार्ग-पतन-कृत बन्ध नहीं होता, किन्तु धर्मस्थितताके कारण निर्जरा ही होती है।
वात्सल्य - रत्नवरको अपने में अभेदबुद्धिसे देखनेकी वत्सलता होने से व व्यवहारमें धर्मात्मा जनोंमें निश्छल पारसत्य होने से सम्यग्दृष्टि मार्गदरसल होते हैं। इसलिये उनके अवात्सत्यकृत बन्ध नहीं होता, किन्तु मागवत्सलताके कारण निर्जरा ही होती है।