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पूर्व रंग देवदत्तस्य स्वभावानतिक्रमाद्देवदत्त एव न वस्त्वंतरं । तथात्मन्ययात्मनो ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं चात्मस्वभावानतिक्रमादात्मैव न वस्त्वंतर, तत प्रात्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव साधु, नित्यं, तत्, पुनस्, त्रि, अपि, आत्मन्, च, एव, निश्चयतः । मूलधासु-शिर् दर्शने, ज्ञा अवबोधने, चर गत्यर्थः, साध संसिद्धी । पदविवरण-दर्शनज्ञानचरित्राणि-प्रथमा बहुवचन कर्मवाच्य में कर्म। सेवितव्यानि-प्रथमा बहुवचन, कृदन्त क्रिया । साधुना-तृतीया एक०, कर्मवाच्य में कर्ता। नित्य-अव्यय । तानिस्वयं परमार्थ एकरूप ही है ।
आगे कहते हैं-"दर्शन" इत्यादि । अर्थ---व्यवहारदृष्टि से देखा जाय तब प्रात्मा एक है तो भी तीन स्वभावरूप होनेसे अनेकाकार है; क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणमता है । भावार्थ---शुद्ध द्रव्याधिकनवसे प्रारमा एक है; इस नयको मुख्यतामें कहा जाय, तब पर्यायाथिकनय गौण हो जाता है । सो एकको तीनरूप परिणामता कहना यही व्यवहार हुप्रा, ऐसे व्यवहारनयसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र परिणाम होमेसे मात्माको मेचक कहा है ।
अब परमार्थनयसे कहते हैं 'परमार्थेन" इत्यादि । अर्थ-परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तब प्रकट जायकज्योतिमात्र आत्मा एकस्वरूप है, क्योंकि इसका शुद्ध द्रव्याथिकनयसे सभी अन्य द्रव्य के स्वभाव तथा अन्यके निमित्तसे हुए विभावोंको दूर करनेरूप स्वभाव है । अतः अमेचक है, अर्थात् शुद्ध एकाकार है ।
यहाँ प्रमाणनयसे मेचक अमेचक कहा सो इस चिन्ताको मेट जैसे साध्यको सिद्धि हो वैसे करना यह "प्रात्मनः" इस काव्यमें कहते हैं । मर्थ-यह प्रात्मा मेचक है, भेदरूप अने. काकार है तथा अमेचक है, अभेदरूप एकाकार है, ऐसी चिन्ताको छोड़ो । साध्य पात्माकी सिद्धि तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र-इन तीनों भावोंसे ही होती है दूसरी तरह नहीं, यह नियम है। मावार्थ-प्रात्मस्वभावकी सिद्धि शुद्ध द्रध्याथिकनयसे होती है । ऐसा जो शुद्ध स्वभाव साध्य है, वह पर्यायाथिकस्वरूप व्यवहारनयसे ही साधा जाता है, इसलिये ऐसा कहा गया है कि भेदाभेदकी कथनीसे क्या, जिस तरह साध्यको सिद्धि हो बैसे करना । व्यवहारी जन भेद द्वारा ही तथ्य समझते हैं । इस कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों परिणामरूप हो प्रात्मा है, इस तरह भेदको प्रधानतासे अभेदकी सिद्धि करनेके लिये कहा गया है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व जिस शुद्ध प्रात्माके दर्शनका आदेश था उसकी दृष्टि व उपासना किस प्रकार करना चाहिये, इस उत्सुकताको पूर्ति इस गाथासे हो जाती है ।
तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्मा ही साध्य है और प्रात्मा ही साधन है अर्थात् शुद्धास्मोप. लब्धि साध्य है और शुद्धात्मानुवृत्ति साधन है । (२) निश्चयनयसे आत्मा सेवने योग्य है । (३) व्यवहारमयसे दर्शन, ज्ञान व चारित्र सेवने योग्य है । (४) परमार्थतः दर्शन, ज्ञान,