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समयसार
प्रद्योतते । स किलदर्शनज्ञान चारिस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयं । मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणत: ॥१६॥ दर्शनज्ञान चारिस्त्रिभिः परिणतत्वतः । एकोपि त्रिस्वभावत्वाद् व्यवहारेए मेचकः ॥१७॥ परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषककः । सर्वभावांतरध्वंसिस्वभावत्वादमेचक: ॥१॥
प्रात्मनश्चितयवालं मेचकामेचकत्वयोः । दर्शनशानचारित्रैः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ॥१६॥१६॥ द्वितीया बहु० कर्मकारक । पुनः--अव्यय । जानीहि-लोट् मध्यम एक० । श्रीणि-द्वितीया बहु० । अपिअव्यय । आत्मानं-द्वि० ए० । च-अव्यय । एव-अव्यय । निश्चयत्तः-हेत्वार्थे तस् अव्यय ॥१६॥ चारित्र यह सब एक पातमा ही है । (५) दर्शनशानचारित्ररूप परिणमता हुमा आत्मा वस्तुतः एक है, सो प्रात्मा मेचकामेचक है। (६) दर्शनज्ञान चारित्ररूप परिणत होनेसे प्रात्मा मेचक है । (७) ज्ञानज्योतिर्मात्र होनेसे प्रास्मा अमेत्रक है। (८) सहजात्मोपलब्धिका सुगम उपाय सम्यग्दर्शन, सभ्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्ररूप परिणमना है ।
सिद्धान्त--(१) वस्तुतः प्रात्मा ही साध्य है । प्रात्मा ही साधन है 1 (२) प्रात्मा मेचकामेचक है । (३) आत्मा मेचक है । (४) प्रात्मा अमेचक है।
दृष्टि-१-कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । २-प्रमाणसिद्ध । ३-सत्तासापेक्षनानात्मक पर्यायाधिक (६०)। ४-परमशुद्धनिश्चयनय (४४) ।
प्रयोग-आत्माका परिचय करके, प्रात्मतत्त्वका श्रद्धान करके, प्रातमाके सानुभव ज्ञान द्वारा प्रात्मामें रमण करके सहज प्रानंदमय ज्ञायकभावरूप अपनेको अनुभवना चाहिये ॥१६॥
अब इसी रत्नत्रयको दो गाथानों में दृष्टान्त द्वारा व्यक्त करते हैं-[यथा नाम] जैसे [कोपि] कोई [अर्याथिकः पुरुषः] धन का चाहने वाला पुरुष [राजानं] राजाको [ज्ञात्वा] जानकर [श्रद्दधाति] श्रद्धान करता है [ततः] उसके बाद [२] उसको [प्रयत्नेन अनुचरति] अच्छी तरह सेवा करता है [एवं हि] इसी तरह [मोक्षकामेन] मोक्षको चाहने वाला [जीवराजः] जीवरूप राजाको [शातयः] जाने [पुनः च] और फिर [तथैव] उसी तरह [श्रद्धातभ्यः] श्रद्धान करे [तु च स एव] उसके बाद [अनुचरितव्यः] उसका अनुचरण करे अर्थात् तन्मय हो जाये ।
तात्पर्य--भेदोपासनाकी विधि प्रात्मतत्त्वका ज्ञान, श्रद्धान, आचरण है।
टीकार्थ-निश्चयसे जैसे कोई धनको चाहने वाला पुरुष प्रयत्नसे पहले तो राजाको जानता है पश्चात् उसीका श्रद्धान करता है उसके पश्चात् उसीका सेवन करता है उसी तरह
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