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________________ निर्जराधिकार ३६१ विनानन् ज्ञानी न किंचिदेव कांक्षति ।। वेद्यवेदकविभावचलत्वाद्वेद्यते न खलु कांक्षितमेव । तेन कांक्षति न किंचन विद्वान् सर्वतोप्यतिविरक्तिमुपैति ।।१४७।। ।। २१६ ॥ तं तद्-अव्ययार्थे । जाणगो ज्ञायकः-प्रथमा एक । दुतु-अव्यय । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । उभयं-- द्वितीया एकवचन । पि अपि-अव्यय । ण न-अव्यय । कंखइ कांक्षति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। कया कदा-अव्यय । ति अपि-अव्यय ।। २१६ ॥ (२) चाहा गया सुख-दुःखादिविषयक भाव वेद्यभाव है। (३) सूक्ष्मपर्याय दृष्टिसे वेदकभाव व वेधभाव प्रतिसमय नष्ट होते रहते हैं । (४) जिस विषयका वेद्यभाव जिस समय हो रहा है उस विषयका वेदकभाव उस समय नहीं है । (५) जिस विषयका वेदकभाय जिस समय हो रहा है उस समय उस विषयका वेद्यभाव नहीं रहता, वह तो पहिले था। (६) वेधभाव व वेदकभावकी विनश्वरताको तथा वेद्यभावके समय तद्विषयक वेदकभावके न हो सकनेके तथ्यको ज्ञानी जानता है, अतः वह उपभोग ही को नहीं चाहता है। (७) उपभोगको न चाहने वाला ज्ञानी उपभोगका परिग्रही नहीं होता । (८) उपभोगका अपरिग्रही सहज शुद्ध ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्वको अनुभवता है । (६) सहज शुद्ध ज्ञानस्वरूप सहज परमात्मतत्त्वका अनुभवी परमात्मपदस्वरूप मोक्षको प्राप्त करता है। सिद्धान्त-(१) वेदकभाव व वेद्यभाव प्रतिसमय नष्ट होते रहते हैं । (२) स्वसंवेदक, ज्ञानी कर्मविपाकवश आपतित उपभोगका मात्र साक्षी है। दृष्टि-१- अशुद्ध सूक्ष्म ऋजुसुत्रनय नामक पर्यायार्थिकनय (३३) । २- प्रभोक्त. नय (१६२)। प्रयोग-विनश्वर विभावोंसे उपेक्षा कर शाश्वत ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त हो सहज मानन्दको अनुभवनेका पौरुष करना ।।२१६॥ अब सभी उपभोगोंसे ज्ञानीके वैराग्य है यह कहते हैं--[बंधोपभोगनिमित्तषु] बंध और उपभोग के निमित्तभूत [संसारदेहविषयेषु] तथा संसारविषयक और देहविषयक [अध्ययसानोदयेषु] अध्यवसानके उदयोंमें [ज्ञानिनः] ज्ञानीके [रागः] राग [नव उत्पद्यते] नहीं उत्पन्न होता। तात्पर्य-ज्ञानी जीवको उपभोगके कारणभूत विकारभावमें राग नहीं रहा इस कारण ज्ञानी भोगकी इच्छा नहीं करता । टोकार्थ- इस लोकमें निश्चयले अध्यवसानके उदय कितने ही तो संसारविषयक हैं और कितने ही शरीरविषयक हैं। उनमेंसे जितने अध्यवसानोदय संसारविषयक हैं उतने तो
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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