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________________ समयसार तथाहि बंधुवभोगणिमित्ते अमवसाणोदरासु गाणिस्स । संसारदेहविसएसु णेब उप्पज्जदे रागो ॥२१७॥ संसारदेहविषयक, जो हैं बन्धोपभोगके कारण । उन सब प्रध्यवसानों-में ज्ञानी राग नहिं करता ॥२१७॥ बंधोपभोगनिमित्तेषु अध्यवसानोदयेषु ज्ञानिनः । संसारदेहविषयेषु नवोत्पद्यते रागः ॥२१७।। इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषयाः कतरेऽपि शरीरविषयाः । तत्र यतरे संसारविषयाः ततरे बंधनिमित्ताः । यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ताः । यतरे बंधनिमितास्ततरे रागद्वेषमोहाद्याः । यतरे तूपभोगनिमित्तास्ततरे सुखदुःखाद्याः । प्रथामीषु सर्वेष्वपि ज्ञानिनो नास्ति रागः । नानाद्रव्यस्वभावत्वेन टंकोत्कीर्णेकज्ञायकभावस्वभावस्य तस्य तत्प्रति ___ नामसंज्ञ---बंधुवभोगणिमित्त, अज्झवसाणोदय, णाणि, संसारदेहविसय, ण, एव, राग। धातुसंज्ञ-- उद्-पज्ज गतो । प्रातिपदिक-बन्धोपभोगनिमित्त, . अध्यवसानोदय, ज्ञानिन्, संसारदेहविषय, ण, एव, राम । मूलधातु-उत् पद मती चरादि । पयविवरण-बंधुवभोगणिमित्ते बन्धोपभोगनिमित्तेषु-सप्तमी वे बंधके निमित्तभूत हैं और जितने अध्यवसानोदय शरीरविषयक हैं उतने बे उपभोगके निमित्तभूत हैं। सो जितने बंधके निमित्तभूत हैं उतने तो रागद्वेष मोह प्रादिक हैं और जितने उपभोगके निमित्तभूत है उतने सुख-दुःखादिक हैं । इन सबमें ही ज्ञानीके राग नहीं है, क्योंकि अध्यवसान नाना द्रब्योंका स्वभाव है अतः टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव वाले ज्ञानोके उसका प्रतिषेध है । भावार्थ-संसार देहभोग सम्बन्धी रागद्वेष मोह अध्यवसान हैं और सुख-दुःखादिक भी अध्यवसान हैं वे नाना द्रव्यके स्वभाव है अर्थात् पुद्गल तथा जीवद्रव्यके संयोगरूपसे हुए हैं । ज्ञानी तो अपनेको एक ज्ञायकस्वभाव मानता है, अतः ज्ञानीके अध्यवसानोंका प्रतिषेध है, ज्ञानीके उनमें प्रीति नहीं है । अब इसी अर्थको श्लोकमें कहते हैं-- जानिनो इत्यादि । अर्थ-गमरससे रिक्त होने के कारण कर्म परिग्रहभावको नहीं प्राप्त होता । जैसे कि लोध फिटकरीसे कषायला नहीं किये गये वस्त्र में रंगका लगना अङ्गीकार न हुअा वस्त्रपर बाहर ही लोटता है याने वस्त्र में प्रवेश नहीं करता । भावार्थ--जैसे लोध फिटकरी लगाये बिना वस्त्रपर रंग नहीं चढ़ता उसी तरह ज्ञानोके राग भावके बिना कर्मके उदयका भोग परिग्रहपनेको प्राप्त नहीं होता । पुनः ज्ञानवान इत्यादि । अर्थ--ज्ञानी निजरससे ही समस्त रागरसके त्यागरूप स्व. भाव वाला है, इस कारण कर्मके मध्यमें पड़ा हुग्रा भी वह समस्त कर्मोंसे लिप्त नहीं होता।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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