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निर्जराधिकार
३६३ षेधात् ।। ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं कर्मरागरसरिक्ततयति । रंगयुक्तिरकषायितवस्त्रे स्वीकृतव हि बहिटुंठतीह ।। १४८|| ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात् सर्वरागरसवर्जनशीलः । लिप्यते सकलकर्मभिरेष कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ॥१४६।। ।। २१७ ।। बहुवचन । अज्झवसाणोदएस अध्यवसानोदयेषु सप्तमी बहु० । णाणिस्स ज्ञानिन:-षष्ठी एफ० | संसारदेहविसासु संसारदेहविषयेषु सप्तमी बहु । पान-अव्यय । एक अध्यय । उप्पज्जदे उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० भावकर्मवाच्य क्रिया । रागो राग:-प्रथमा एकवचन ।। २१७ ।।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी विषयोपभोगको नहीं चाहता है । अब इस गाथामें उसी विषयका स्पष्टीकरण किया गया है ।
लथ्यप्रकाश-(१) संसारविषयक रागादिभाव बन्धनके निमित्तभूत होते हैं । (२) शरोरविषयक सुख-दुःखादि भाव उपभोगके निमित्तक होते हैं.। (३) ज्ञानीका न तो रागादि भावमें राग है और न सूख-दुःखादि भाव में राग है। (४) रागादि भाव व सुख-दुःखादि भावमें नानाद्रव्यस्वभावपना है, अतः ये विकार आत्माके नहीं हैं। (५) टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव एकात्मद्रव्यस्वभाव है, अतः ज्ञायकस्वभाव ही प्रात्माका स्वरूप है । (६) रागरसरिक्त होनेसे ज्ञानीकी क्रिया परिग्रहभावको प्राप्त नहीं है जैसे कि अकषायित (लोध फिट. करीसे नहीं भोगे) वस्त्रमें रंगका योग बाहर ही रहता भोसर पक्का नहीं होता । (७) ज्ञानी स्वरसन: समस्त रागसे निराला रहनेके स्वभाव वाला है, अतः वह कर्ममें पड़कर भी कोंसे लिप्त नहीं होता । (८) स्वसम्वेदन ज्ञान का प्रभाव होनेसे अज्ञानी इन्द्रियविषयों में रागी होता है, अतः वह कर्मरजसे बँध जाता है ।
सिद्धान्त- १- रागादि विभाव में राग होना मिथ्यात्व है । २- शाश्वत ज्ञानस्वभाव का स्वसम्वेदन होनेसे शानी विभावोंका मात्र साक्षी है ।
दृष्टि-१- प्रशुदनिश्चयनय (४७) । २- अकतनय व अभोक्तुनय (१९०-१९२) ।
प्रयोग--विकारोंको नैमित्तिक भाव जानकर उनसे उपेक्षा करके शायकस्वभावमात्र अन्तस्तत्त्वको निरखकर सहज तृप्त रहनेका पौरुष करना ॥ २१७ ।।
____ अब पूर्व गाथोक्त अर्थका दृष्टान्तपूर्वक व्याख्यान करते है--[ज्ञानी] भानी [सर्षद्रव्येषु] समस्त द्रव्योंमें [रागप्रहायकः] रागका त्यागने वाला है अतः वह कर्ममध्यगतः तु] कर्मके मध्यमें प्राप्त हुमा भी [रजसा] कर्मरूपी रजसे [तो लिप्यते] लिप्त नहीं होता [यया] जैसे कि [कर्दममध्ये] कीचड़में पड़ा हुआ [कनकं] सोना । [तु पुनः] किन्तु फिर [प्रज्ञानो] अज्ञानी [सर्वदध्येषु] समस्त द्रव्योंमें [रक्तः] रागी है, अतः [कर्ममध्यगतः] कोंके मध्य में प्राप्त हुमा