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________________ i समयसार प्रसंगविवरण -- पूज्य श्री आचार्य कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचित समयप्राभृत ग्रन्थराजको आत्मख्याति नामक टीका रचते समय पूज्य श्री अमृतचन्द्र जी सूरिने अपने इष्टको समयसारके नामसे इस कारण नमस्कार किया है कि इष्ट देवका सामान्यस्वरूप शुद्ध प्रात्मा है । सो प्रभु द्रव्यतः शुद्ध ग्रन्तः सहज चैतन्यस्वरूप है ही और पर्यायतः भी शुद्ध प्रभु हैं । जो द्रव्यतः सहजस्वरूप है, उसकी आराधनासे ही प्रभु प्रभु हुए हैं। इसी अनादि अनन्त ग्रहेतुक अन्तः सहजस्वरुपकी श्राराधना के लिये यह ग्रन्थीपदेश है । अतः समयसार के लिये यहाँ सर्वप्रथम नमस्कार किया गया है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) स्वानुभव से प्रकाशमान इस विशेषणसे यह सिद्ध हो गया कि श्रात्मा तथा ज्ञान मीमांसकसम्मत जैसा सर्वथा परोक्ष नहीं, किन्तु वह स्वानुभव से स्वमें स्वयं स्वको जानता है । ( २ ) इसी विशेष से सिद्ध है कि ज्ञान नैयायिकसम्मत जैसा स्वयं अपनेको नहीं जानता ऐसा नहीं, किन्तु ज्ञान स्वसंवेद्य है । ( ३ ) चित्स्वभाव इस विशेषण से सिद्ध हुआ निँयायिक-मीमांसकादिसम्मत जैसा गुरगुणीमें सर्वथा भेद नहीं, किन्तु वस्तु गुणमय है, श्रात्मा चेतन्यस्वभावमय है । ( ४ ) भावाय इस विशेषण से शून्यवादसम्मत सर्वथा प्रभाववादका निराकरण हुआ, क्योंकि आत्मा सद्भुत है । (५) सर्वभावान्तरच्छिदे इस विशेषण से सर्वजता की सिद्धि हुई, मीमांसकसम्मत असर्वज्ञताका एकान्त नहीं । ( ६ ) इसी विशेषण से सिद्ध है कि श्रात्मस्वरूप सर्वविकारोंसे परे है । सिद्धान्त - ( १ ) परमशुद्धचित्स्वरूप आत्मा शुद्धनयात्मक ज्ञानानुभूतिसे ज्ञातव्य है । (२) ज्ञान स्वसम्वेद्य है । (३) गुण गुणीमें भेद नहीं है । (४) श्रात्मा चैतन्यात्मक स्वास्तित्व से समवेत है । (५) आत्मा सर्व परपदार्थों का ज्ञाता है | ( इनकी दृष्टियाँ क्रमसे निम्नांकित हैं) दृष्टि - १ - शुद्धनय (४९) । २ - कारककार किभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । ३-परमशुद्ध निश्चयनय (४४) । ४ - प्रन्वयव्याथिकनय (२७) । ५ - स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५ ) । प्रयोग – सहजसिद्ध अन्तस्तस्वकी अर्थात् समयसारकी उपासनासे हो आत्मा सदा के लिये सकल संकटों से मुक्त होता है । अतः समस्त परपदार्थो का ख्याल छोड़कर भवनेको सहजसिद्ध चैतन्यमात्र प्रन्तस्तत्त्वरूप सहज अनुभवना चाहिये, ॐ शुद्धं चिदस्मि । यह प्रायोगिक प्रन्तस्तस्वभक्ति हो परमार्थतः समयसारके लिये नमस्कार है || १|| टीकागत द्वितीय मंगलाचरणका अर्थ - अनन्तधर्मात्मक, प्रत्यगात्मा के तत्त्वको अव लोकन करने वाली तथा दर्शाने वाली अनेकान्तमयो मूर्ति नित्य ही प्रकाशमान होनो । मावार्थ -- जिसमें अनेक ग्रंत (धर्म) हैं, ऐसा जो ज्ञान तथा वचन उस रूप मूर्ति नित्य ही प्रकाशरूप हो । वह मति ऐसी है कि जिसमें अनन्त धर्म हैं और कैसी है ? प्रत्यक
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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