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________________ १७ मोक्षाधिकार को हि नामायमपराधः ? संसिद्धिराधसिद्ध साधियमाराधियं च एयठें। अक्मयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ॥३०॥ जो पुण गिरवराधो चेया णिस्संकियो उ सो होइ । श्राराहणाइ णिच्चं बट्टेइ ग्रहं ति जाणतो ॥३०५॥ (युग्मम्) संसिद्धि राध साधित, पाराधित सिद्ध सर्व एकार्थक । जो जीव राध अपगत, सो प्रात्मा है निरपराधी ॥३०४॥ जो जीव निरपराधी, बह निःशंक निःशल्य हो जाता। निजको निज लखता यह, लगता मास्मानुराधनमें ॥३०॥ संसिद्धिराधसिद्ध साधितमाराधितं चैकार्थं । अपगतराधो यः खलु चेतयिता स भवत्यपराधः ।। ३०४ ॥ यः पुननिरपराधश्चेतयिता निश्शंकितस्तु स भवति । आराधनया नित्यं वर्तते, अहमिति जानन् ॥ ३०५।। परद्रव्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मनः सिद्धिः साधनं वा राधः, अपगतो राधो यस्य चेतयितुः सोऽपराधः । अथवा अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराधस्तेन सह यश्चेतयिता वर्तते स नामसंग-संसिद्धिराधसिद्ध, साधिय, आराधिय, च, एयट्ट, अवगयराध, ज, स्खलु, चेया, त, अबराध, ज, पुण, मिरवराध, चैया, णिस्संकिअ, उ, त, आराहणा, णिच्चं, अम्ह, ति, जाणत । पातुसंज्ञ-- दृष्टि--१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २-निर्मिसदृष्टि, निमित्तत्वनिमित्तदृष्टि (५३, २०१)। प्रयोग-निःशङ्क निर्बन्ध रहने के लिये परद्रव्य व परभावके ग्रहणका अपराध नहीं नहीं करके स्वभावमें उपयुक्त होना ।। ३०१.३०३ ।। प्रश्न-यह अपराध क्या है ? उत्तर-[संसिद्धिराधसिद्ध] संसिद्धि, राध, सिद्ध [साधितं च भाराधितं] साधित और पाराधित [एकार्य] ये एकार्थ शब्द हैं। [यः खलु चेत. यिता] जो आत्मा [अपगतराधः] राधसे रहित हो [सः] वह प्रात्मा [अपराधः भवति] राधरहित याने अपराधी है [यः पुनः] और जो [चेतयिता] प्रात्मा [निरपराधः] अपराधरहित है [सः तु] वह [निःशक्तिः ] शंकारहित [भवति] है पौर सहजस्वरूप अपनेको [महं इति] मैं हूं ऐसा [जानन] जानता हुमा [आराधनया भाराधना द्वारा [नित्यं वर्तते] हमेशा बर्तता है। तात्पर्य-प्रात्माकी दृष्टि न होना अपराध है, ऐसा अपराध करने वाला ही संसार में
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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