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________________ ५.१८ समयसार सापराधः स तु परद्रव्यग्रहणसद्भावेन शुद्धात्मसिद्ध्यभावादबंध शंकासंभवे सति स्वयमशुद्धत्वादनाराधक एवं स्यात् । यस्तु निरपराकास समग्रपरद्रव्यपरिहारेण शुद्धात्मसिद्धिसद्भावादुबंधशंकाया असंभवे सति उपयोगकलक्षरणशुद्ध श्रात्मैक एवाहमिति निश्चिन्वन् नित्यमेव शुद्धात्मसिद्धिलक्षणयाराधनया वर्तमानत्वादाराधक एव स्यात् ॥ अनवरतमनंतंबंध्यते सापराधः स्पृशति राह राधने, साहू साधने, सिज्झ निष्पत्तौ हो सत्तायां, वत्त वर्तने, जाण अववोधने । प्रातिपदिक-संसिद्धिसिद्ध, साधित, आराधित, व, एकार्थ, अपगतराध, यत्, खलु, चेतयितृ, तत्, अपराध, यत् पुन, निर पराध, चेतयितृ, निःशंकित, तु, आराधना, नित्यं, अस्मद् इति, जानत् । मूलबासु-साध संसिद्धौ स्वादि, राध संसिद्धी स्वादि, षिधु संसिद्धी दिवादि, भू सत्तायां वृतु वर्तने भ्वादि, जाण अवबोधने । पदविवरणसंसिद्धिरावसिद्ध - प्रथमा एकवचन । साधियं साधितं प्रथमा एक० आराधियं आराधितं प्रथमा एक० । रुलता है निरपराध आत्मा श्रात्ममग्न होता है । टोकार्थ- परद्रव्यके परिहार द्वारा शुद्ध श्रात्माकी सिद्धि अथवा साधन होना राध है । जिस श्रात्मा के राध अर्थात् शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधन बपगत हो वह ग्रात्मा अपराध है | अथवा जिस भावका राध अपगत हो गया हो याने दूर हो गया हो वह भाव अपराध है ! उस अपराधसे सहित जो श्रात्मा रहता है वह ग्रात्मा सापराध है। ऐसा आत्मा परद्रव्य के ग्रहण सद्भावसे, शुद्ध प्रात्माकी सिद्धिके प्रभावसे, उसके बंधकी शङ्काका संभव होनेपर स्वयं अशुद्धपना होनेसे प्राराधना करने वाला नहीं है । परन्तु जो श्रात्मा निरपराध है वह समस्त परद्रव्यके परिग्रहके परिहार द्वारा शुद्ध आत्माकी सिद्धिके सद्भावसे उसके बंध की शङ्का न होनेपर "मैं उपयोगलक्षण वाला एक शुद्ध श्रात्मा ही हूँ" ऐसा निश्चय करता हुआ वह प्रात्मा नित्य ही शुद्ध आत्माकी सिद्धि लक्षणबाली प्राराधना से युक्त सदा बर्तता होने से आराधक हो है । भावार्थ- संसिद्धि, राध, सिद्धि, साधित और माराधित- इन शब्दोंका अर्थ एक आत्मावलोकन हो है । जिसके यह श्रात्मदर्शन नहीं है वह प्रात्मा सापराध है, और जिसके यह हो यह निरपराध है । सापराधके बंधको शंका होती है, इसलिये अनाराधक है, श्रीर. निरपराध निशंक हुआ अपने उपयोगमें लीन होता है, निरपराधोको बंधको शंका नहीं होती, तब वह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तपका एक भावरूप निश्चय श्राराधनाका श्राराधक ही है । I अब इसी अर्थको कलश में कहते हैं --अनवरत इत्यादि । श्रर्थ सापराध श्रात्मा निरंतर अनंत पुद्गल परमाणुरूप कर्मोंसे बँधता है; निरपराध श्रात्मा बंधन को कभी स्पर्शन नहीं करता । तो प्रपने आत्माको नियमसे अशुद्ध ही सेवन करता हुआ प्रात्मा तो सापराध ही होता है और अच्छी तरह शुद्ध श्रात्माका सेवन करने वाला श्रात्मा निरपराध होता है । —
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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