SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अतः सर्वथा सर्वपरकीयभावपरिहारेण शुद्ध प्रात्मा गृहीतयः, तथा सत्येव निरपराधत्वात् । ॥ ३०१-३०३ ॥ वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जो यः सो सः-प्रथमा एकवचन । उ तु-अव्यय । संकिदो शंकित:-प्रथमा एक । भमई भ्रति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । मा-अव्यय । वझेझ अध्ये-वर्तमान लट् उत्तम', पुरुष एक० कर्मवाच्य क्रिया । केण केन-तृतीया एक० 1 वि अपि-अच्यय । चोरो चोर:-प्रथमा एक.। इत्ति इति-अव्यय । जणम्हि जने-सप्तमी एकः । वियरंतो विचरन-प्रा एक । जो यः-प्रथमा एकवचन ।। ण न-अव्यय । कुणई करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । अवराहे अपराधान्--द्वितीया बहु । सो स:-प्रथमा एक० । णिस्संको नि:शंक:-प्रथमा एकः । उतु-अध्यय । जणवए जनपदे--सप्तमी एक.।। भमई भ्रमति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । ण न वि अपि-अव्यय । तस्स तस्य-षष्ठी एक० । बज्झिg. ब -कृदन्त । जे यत्-अव्यय । चिता-प्र० ए० 1 उप्पज्जइ उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन ।। कयाइ कदाचित्-अव्यय । सावराहो सापराध:-प्र० ए०। बज्झामि बध्ये-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० कर्मवाच्य किया। अहं-प्र० एक० । संकिदो शक्ति:--न. एक० । चेदा चेतायता निरव राहो निरपराध: हिस्सको निश्शक:-प्रथमा एक० ] अहं-प्रथमा एकवचन । बझामि बध्ये-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक: वचन ।। ३०१-३०३ ।। प्रसंगधिवरण----अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि स्व शुद्ध आत्माको जानता हुप्रा कौन ज्ञानी परको अपनायमा, परभाव तो सभी हेय हैं। अब इस गाथामें उन्हीं परभावों को ग्रहण करने वालेको अपराधी प्रसिद्ध किया गया है। तथ्यप्रकारा--(१) चोरी, परस्त्रोसेवनके अपराधकी तरह रागादि परद्रव्यका ग्रहण ! करना, स्वीकार करना अपराध है । (२) रागादि परभावको प्रात्मरूप माननेसे जीव स्वस्थभावसे च्युत हो जाता है, अत: परभावका स्वीकरण · अपराध है। (३) यह अपराधी जीव : बन्धनकी शङ्कासहित भ्रमण करता है, कर्मोंसे बंध जाता है, विषाद मरण आदि दण्ड पाता है । (४) जो रागादि परभावोंको स्वीकार नहीं करता, परकीय जानकर उनसे हटा रहता है वह निरपराध है। (५) निरपराध आत्मा निःशङ्क रहता है । (६) निरपराध आत्माको बन्धनको शङ्का नहीं रहती। (७) निरपराध आत्मा कर्मसे मुक्त होता है । (८) मिथ्यात्व रागादि परभावोंको स्वीकारतासे कर्मबन्धन होता। (६) अविकार परम चैतन्यस्वभावकी स्वीकारतासे जीव मुक्त होता है । (१) प्रात्महितैषियोंको नेतन्यमात्र भाव ही ग्रहण करने योग्य है, शेष सर्व भाव छोड़ने योग्य है। - सिद्धान्त ---(१) परभावको स्वीकार करने वाला अपराधी जीव निश्चयत: अपने विकार वासना संस्कारोंसे बँध जाता है । (२) अपराधी जीवके विकारका निमित्त पाकर ज्ञानावरणादि कर्मोका बन्ध होता है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy