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समयसार कह सो घिप्पइ अप्पा पण्णाए सो उ धिप्पए अप्पा । जह पणाइ विहत्तो तह पण्णाएव पित्तव्यो ॥२६६॥
किमि गृहीत हो प्रात्मा, प्रज्ञासे वह गृहीत होता है।
ज्यौं प्रज्ञासे भेदा, त्यो प्रज्ञासे ग्रहण करना ॥२६६॥ कथं स गृह्यते आत्मा प्रज्ञया स तु गृह्यते आत्मा । यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयव गृहीतव्यः ॥ २६६ ॥
ननु केन शुद्धोयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयव शुद्धोयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः
नामसंज्ञ-कह, त, अप्प, एण्णा, त, उ, अप्प, जह, पाणा, बिहत्त, तह, पण्णा, एव, पित्तव्व । धातुसंज्ञ -गिह ग्रहयो । प्रातिपदिक-कथं, तत्, आत्मन्, प्रज्ञा, तत्, तु, आस्मन्, यथा, प्रज्ञा, विभक्त, तथा, प्रज्ञा, एच, गृहीतव्य । मूलधासु · ग्रह उपादाने क यादिगणे । पदविवरण-कह कथं-अव्यय । सो सः-प्रथमा एकवचन । उ तु-अन्यय । घिप्पइ गृहयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० कर्मवाच्य क्रिया। अप्पा आत्मा-प्रथमा एक० । पण्णाए प्रज्ञया-तृतीया एकवचन । सो सः-प्रथमा एक० । उ तु-अव्यय ।
आत्मा और बन्धको प्रज्ञासे तो भिन्न किया, परन्तु प्रात्माको ग्रहण किसके द्वारा किया जाय ? इस प्रश्नोत्तरको गाथा कहते हैं--प्रश्न-[स प्रात्मा] वह शुद्धात्मा [कथं] कैसे [गृह्यते ग्रहण किया जाता है ? उत्तर---[स तु आस्मा] वह शुद्धातमा [प्रज्ञया] प्रज्ञाके द्वारा हो । गृह्यत] ग्रहण किया जाता है । यथा] जिस प्रकार पहले [प्रज्ञया] प्रज्ञाके द्वारा [विभक्तः] भिन्न किया [तथा] उसी प्रकार [प्रज्ञयव] प्रज्ञाके द्वारा हो [गृहीतव्यः] ग्रहण किया जाना चाहिये।
तात्पर्य --ज्ञानके द्वारा हो तो आत्मस्वभाव व बन्धको भिन्न-भिन्न किया जाता है और ज्ञानके ही द्वारा प्रात्माको ग्रहण किया जाता है ।
टोकार्थ---प्रश्न--यह शुद्ध प्रात्मा किस तरह ग्रहण किया जाना चाहिये ? उत्तरयह शुद्धात्मा प्रज्ञासे ही ग्रहण किया जाना चाहिये । क्योंकि स्वयं अपने शुद्ध आत्माको ग्रहण करते हुए शुद्ध प्रात्माके जैसे कि पहले भिन्न करते हुएके प्रज्ञा ही एक करण था उसी प्रकार ग्रहण करते हुए भी वही प्रज्ञा एक करण है, भिन्न करण नही है । अत: जैसे प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया था वैसे प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिये। भावार्थ- प्रात्मा और बन्धको भिन्न करनेमें और केवल प्रात्माके ग्रहण करने में पृथक् करण नहीं है इसलिये प्रज्ञाके द्वारा ही तो भिन्न किया और प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिये ।
प्रसंगविवरण--- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्मा और बन्धको अलगअलग करके गात्र आत्माको ग्रहण करना चाहिये। अब इस गाथामें बताया है कि मात्र प्रात्मतत्त्वको कसे ग्रहण कर लेना चाहिये ।