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मोक्षाधिकार स्वयमात्मानं गृह्णतो विभजत इव प्रजककरणत्वात् । अतो यथा प्रज्ञया विभक्तस्त्था प्रज्ञयव गृहीतव्यः ।। २६६ ।। घिप्पए गृहयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन कर्मवाच्य किया। अप्पा आत्मा-प्रथमा कवचन कर्मवाच्यमें कर्म । जह यथा-अव्यय। पण्णाइ प्रज्ञया-तृ० एक० करणकारक । विहत्तो विभत्तः-प्रथमा एक कृदन्त क्रिया , तह तथा-अव्यय । पण्णाइ प्रज्ञया-तृ० एक० । एव-अव्यय । चित्तदवो हीतव्यः-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया॥ २६६ ।।
तथ्यप्रकाश-(१) मात्मा और बन्धको अलग अलग कर देनेका प्रयोजन शुद्ध प्रात्माका ग्रहण करना है। (२) प्रजाके द्वारा हो यात्मा और बन्धको अलग-अलग किया जाता है । (३) प्रज्ञाके द्वारा ही शुद्ध प्रात्माको ग्रहण किया जाता है । (6) प्रात्मा और बन्धके छेदनको तरह शुद्ध प्रात्माको ग्रहण करना भी एक प्रज्ञाकरणके द्वारा ही सम्भव है ।
सिद्धान्त--(१) ज्ञान द्वारा ज्ञानमें ज्ञानस्वरूप प्रात्माको सुसिद्ध किया जाता है। (२) निर्विकल्प सम्वेदन द्वारा शाश्वत जानम्वभावमें उपयोग अभेदरूपसे रम जाना है ।
दृष्टि-१- ज्ञाननय (१६४) । २-- नियतिनय (१७७)।
प्रयोग--ज्ञान मात्र आत्माको निरखकर इसी शाश्वत ज्ञानस्वभावमें उपयोरको लगाना व रमाना ।। २६६ ।।
प्रश्न-प्रात्माको प्रज्ञाके द्वारा किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए ? उत्सर---[यः चेतयिता] जो चेतनस्वरूप प्रात्मा है [निश्चयतः] निश्चयसे [सः तु] वह ही तो [अहं] मैं हूं ऐसा [प्रज्ञया] प्रज्ञाके द्वारा [गृहीतव्यः] ग्रहण करना चाहिये [अवशेषाः] और अवशेष [ये भाषा:] जो भाव हैं [ते] वे [मम परा] मुझसे पर हैं याने भिन्न हैं [इति ज्ञातव्याः] इस .. प्रकार जानना चाहिये ।
तात्पर्य-जो ज्ञानमात्र हूं, जाननहार हूं वही मैं हूं ऐसा अन्तः अनुभव करना ही प्रात्माको ग्रहण करना है ।
टोकार्य-निश्चयसे जो निश्चित निजलक्षणको अवलम्बन करने वाली प्रज्ञाके द्वारा विभक्त किया गया जो चैतन्यस्वरूप प्रात्मा है वहीं यह मैं हूं और जो ये अवशेष अन्य अपने लक्षणसे पहचानने योग्य व्यवहाररूप भाव हैं, वे सभी व्यापक आत्माके व्याप्यपनेमें नहीं पाते हुए मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं। इस कारण मैं ही, अपने द्वारा हो, अपने हो लिये, अपनेसे हो, अपने में ही, अपनेको ही ग्रहण करता हूं। जो मैं निश्चयत: ग्रहण करता हूं वह प्रात्माकी वेतना ही एक क्रिया होनेसे मैं उस त्रिपासे चेतता ही हूं, चेतता हुमा हो नेतता हूं, चेतते