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पुण्यपावाधिकार
२८६ हेतोरेवैकद्रव्यस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्य भवनात् । वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा । एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्ष हेतुस्तदेव तत् ॥ १०६ ॥ वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि । द्रव्यांतरस्वभावत्वान्मोक्ष हेतुर्न कर्म तत् ॥ १०७॥ मोक्षहेतुतिरोधानाद्बंधत्वात्स्वयमेव च । मोक्ष हेतु तिरोधायिभावत्वात्तनिषिध्यते ॥ १०६ ॥ ॥१५६॥
वाद, क्षिक्ष स्वाति वि-हि गतौ वृद्धौ च भ्वादि । पविवरण- मोत्तॄण मुक्त्वा असमाप्तिकी क्रिया । पिच्छय निश्चयार्थ - द्वितीया एक० । बवहारे व्यवहारे - सप्तमी एक० 1 ण न-अव्यय । विदुसा विद्वांस:प्रथमा बहु० 1 पचति प्रवर्तन्ते वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । परमट्ठ परमार्थ - द्वि० एक० । अस्सिदाण आश्रितानां षष्ठी बहु० । दु तु-अव्यय । जदीण यतीनां षष्ठी बहु० । कम्मक्लओ कर्मक्षयः - प्रथमा ए० । विड़िओ विहितः - प्रथमा एकवचन कृदन्त ।। १५६ ।।
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अब इसी अर्थ कलश रूप दो श्लोक कहते हैं - वृत्तं इत्यादि । श्रर्थ - ज्ञानस्वभाव से बर्तना ही ज्ञानका होना है और वही मोक्षका कारण हैं क्योंकि ज्ञान ही एक आत्मद्रव्यस्वभाव है । वृत्तं इत्यादि - - कर्मस्वभाव से बर्तना ज्ञानका होना नहीं है, वह (कर्मका बर्तना) मोक्षका कारण नहीं है क्योंकि कर्म अन्यद्रव्यस्वभाव है । भावार्थ - मोक्ष आत्माको होता है इसलिए श्रात्माका स्वभाव हो मोक्षका कारण हो सकता है और चूंकि ज्ञान आत्माका स्वभाव है, अतः वही मोक्षका कारण है । तथा कर्म अन्य ( पुद्गल ) द्रव्यका स्वभाव है इस लिए वह श्रात्मा के मोक्षका कारण नहीं होता, यह युक्ति श्रागम और अनुभवसे सिद्ध है । मोक्षहेतु इत्यादि -- चूंकि कर्मसे मोक्षहेतुका तिरोधान होता है, कर्म स्वयं बंधस्वरूप है, तथा कर्म मोक्षके कारणोंका प्राच्छादक है, अतः इन तीन हेतुधोसे मोक्षमार्ग में कर्मका निषेध किया गया है ।
प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथा में परमार्थमोक्षहेतु बताया गया था । अब परमार्थ मोक्ष हेतु के अतिरिक्त जो भी कर्म है उसका निषेध इस गाथा में किया गया है ।
तथ्य प्रकाश- १ - ज्ञानका ज्ञानरूप रहना ही मोक्षका हेतु है । २- परमार्थ मोक्ष हेतुके सिवाय जितने भी व्रत तप आदि कर्म हैं वे अन्य द्रव्यका स्वभाव होनेसे मोक्ष हेतु नहीं हैं, क्यों कि कर्मक्रिया के स्वभावसे ज्ञानका होना नहीं होता । ३- निश्चय रत्नत्रयात्मक ज्ञानभाव एक निज आत्मद्रव्यका स्वभाव होनेसे मोक्ष हेतु है, क्योंकि आत्मस्वभावसे ज्ञानका होना होता है । सिद्धान्त - १ - परमार्थका श्राश्रण करने वाले यतियोंको मोक्ष होता है । २ - शुद्धोयोगसे पूर्व होने वाले भोपयोग के श्राश्रयभूतके प्रति योग उपयोग करना उपचारसे धर्म है । दृष्टि - १ - उपदानदृष्टि (४६) । २ - प्रतिसामीप्ये तत्त्वोपचारक व्यवहार (१४७ ) | प्रयोग - व्यवहारधमं प्रवर्तन से अशुभोपयोगका निवारण कर परमार्थबोधन अभ्यास