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कर्नु कर्माविकार तु य एव जीवः स एवाजोव इति द्रव्यांतरलुप्तिः । एवं प्रत्ययनोकर्मकर्मणामपि जीवादनन्यत्व__ प्रतिपत्तावयमेव दोषः । अथैत दोषभयादन्य एवोपयोगात्मा जोवोऽन्य एव जडस्वभावः क्रोधः
इदम्, एकत्व, दोष, प्रत्ययनोकर्मकर्मन्, अथ, युष्मद, अन्य, क्रोध, अन्य, उपयोग, चेतायत, यथा, क्रोध, तथा. प्रत्यय, कर्म, नोकर्मन, अपि, अन्यत् । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, उप-युजिर् योगे, ऋध क्रोधे, आपद गतौ । पदविवरण- -- यथा-अव्यय । जीवस्य-षष्ठी एक० । अनन्यः-प्रथमा एकवचन । उपयोग:-प्र. ए० । क्रोध:-प्र० ए० अपि-अध्यय । तथा अव्यय । यदि-अध्यय। अनन्यः-प्र० एक०। जीवस्य-षष्ठी एक० अजीवस्य-षष्ठी एक० । च-अव्यय । एवं-अव्यय । अनन्यत्वप्रथमा एक.० । आपन्न-प्रथमा एक कृदंत किया । एवं-अव्यय । इह-अव्यय । य:-प्रथमा एकः । तु-अव्यय । जीव:-प्रथमा एकवचन । स:प्रथमा एकः । एव-अव्यय । तु-अव्यय । नियमत:-अव्यय पंचम्यां तसल् । तथा अव्यय । अजीव:-भ्रथमा प्रकार जड़ क्रोध भी अनन्य ही है, ऐसी प्रतीति हो जाय तो चिद्रूपको और जड़की अनन्यतासे जीवके उपयोगमयताकी तरह जड़ क्रोधमय होनेको भी प्राप्ति दई । ऐमा होनेपर जो जीव है, वही अजीव है, इस प्रकार द्रव्यान्तरका लोप हो गया । इसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म और कर्मों को भी जीवके साथ एकत्वकी प्रतीतिमें यही दोष पाता है । इस दोषके भयसे यदि ऐसा माना जाय कि उपयोगस्वरूप जीव तो अन्य है और जड़स्वरूप क्रोध अन्य है तो जैसे उपयोगस्वरूप जीवसे जड़स्वभाव क्रोध अन्य है, उसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म और कर्म भी अन्य ही हैं, क्योंकि अंसी जड़स्वभाव क्रोध है, उसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म, कर्म ये भी जड़ हैं, इनमें विशेषता नहीं है । इस प्रकार जीव और प्रत्ययमें एकत्व नहीं है। भावार्थ - मिथ्यात्वादि मानव तो जड़स्वभाव हैं और जीव चैतन्यस्वभाव है । यदि जड़ और चेतन एक हो जायें तो भिन्न द्रव्यका ही लोप हो जाय यह बड़ा भारी दोष आता है । इसलिये प्रास्त्रव और आत्मामें एकत्व नहीं है, यह निश्चय नयका सिद्धान्त है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथावोंमें इस तथ्यका निर्देश किया गया है कि मिथ्यात्व, अविरति, कषाययोगरूप तथा उनके भेदरूप १३ गुणस्थान--ये सब द्रव्यप्रत्यय बताये गये और ऐसे ही भावरूप जीवपरिणाम भी है । अब इन तीन गाथावोंमें इस विवरणसे सम्बं. धित यह बात कही गई है कि जीव और प्रत्ययोंमें एकत्व नहीं है, अभेद नहीं है ।
तथ्यप्रकाश-१- जीवसे उपयोग अभिन्न है । अतः जीव उपयोगमय है । २- यदि जड़ क्रोध भी जीवसे अभिन्न हो जाये तो जीव जड़ क्रोधमय हो जावेगा । ३- यदि जोद उपयोगभयकी तरह जड़क्रोधमय हो जाय तब तो जो ही जीव है वही अगीय है, द्रव्यान्तर न रहेगा, कौनसा न रहे, फल यह होगा कि दोनों ही न रहे यह महादोष है - जैसे जड़स्वभावी क्रोध उपयोगात्मक जीवसे अन्य है, ऐसे हो प्रत्यय, कर्म, नोकर्म भी उपयोगात्मक जीव से अन्य ही हैं।