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5 आत्मरमण
मैं दर्शनज्ञानस्वरूपी हूँ, मैं सहजानन्द स्वरूपी हूँ ॥ टेक ॥
हूँ ज्ञानमात्र परभावशून्य, हूँ सहज ज्ञानघन स्वयं पूर्णं । हूँ सत्य सहज आनन्दधाम, मैं सहजानन्द० । मैं दर्शन ० ॥ १ ॥ हूं खुदका हो कता भोक्ता, परमें मेरा कुछ काम नहीं || परका न प्रवेश न कार्य यहाँ, मैं सहजानन्द० | मैं दर्शन० ||२||
आऊ उतरू' रमलूँ निजमें, निजकी निजमें दुविधा ही क्या || निज अनुभव रस से सहजतृप्त, मैं सहजानन्द० । मैं दर्शन० ॥ ३ ॥ मंगल तंत्र
ॐ नमः शुद्धाय ॐ शुद्ध चिदस्मि
ज्ञानमात्र हूं, मेरे स्वरूपमें अन्यका प्रवेश नहीं, अत: निर्भर हूं। मैं ज्ञानघन हूं, मेरे स्वरूप में अपूर्णता नहीं, अतः कृतार्थ हूं । मैं सहज आनन्दमय हूँ, मेरे स्वरूपमें कष्ट नहीं, अतः स्वयंतृप्त हूं । ॐ नमः शूद्राय ॐ शुद्ध चिदस्मि ।
5 आत्म कीर्तन फ्र
हूं स्वतन्त्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता द्रष्टा आतम राम ॥ टेक ॥ मैं वह हूं जो हैं भगवान, जो में हूँ वह हैं अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यह राग मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति सुख ज्ञान निधान || किन्तु आश वश खोया ज्ञान, बना भिखारी
भगवान । वितान ॥१॥
निपट अजान ॥ २॥
दुख की खान ॥
नहि लेश निदान || ३ ||
सुख दुख दाता कोइ न आन, मोह राग रुष निजको निज परको पर जान, फिर दुखका जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु बुद्ध राग त्यागि पहुँच निज धाम्र, आकुलताका
हरि जिसके नाम ॥
फिर क्या काम ॥४॥
होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जगका करता क्या काम ||दूर हटो परकृत परिणाम, 'सहजानन्द' रहूँ अभिराम ॥ ५ ॥
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