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________________ - -------- - जीवाजीवाधिकार १०५ स्वभावविलक्षणत्वात्किल दुःखं, तदंतःपातिन एव किलाकुलत्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः । ततो न ते चिदन्वयत्वविभ्रमेप्यात्मस्वभावाः किंतु पुद्गलस्वभावाः ॥४५।। द्वि० एकo, जिना:-प्रथमा बहुवचन कर्ता, विदन्ति-वर्तमान अन्य पुरुप बहु० किया, यस्य-पप्ठी एकरू, फल-प्रथमा एक, उच्यते-वर्तमान अन्य पुरुष एक०, भाषकर्मप्रक्रिया किया, दुःखं-प्रथमा एक, इतिअ०, विपच्यमानस्य-षष्ठी एकवचन ।।४।। भाव पुद्गलस्वभाव कहे गये हैं। सिद्वान्त--(१) अध्यवसान प्रादि भाव कर्मफल हैं, पुद्गलस्वभाव हैं, जीव नहीं हैं । (२) कर्मोदयका निमित्त पाकर जीवमें दुःखरूप परिणमन होता है । दृष्टि-१- विवक्षितकदेशशुद्धनिश्चयनय (४३) । २-- उपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रध्याथिकनय (२४)। प्रयोग-----कर्म व कर्मप्रतिफलनसे रहित चतन्यस्वभावमाय अपनेको निरखकर चैतन्यस्वभावमात्र अपनेको अनुभवमा चाहिये ।।४५।। यदि अध्यवसानादि भाव पुद्गलस्वभाव हैं तो सर्वज्ञके पागम में इनको जीवके भान कसे कहा ? उसके उत्तर में गाधासूत्र कहते हैं--[एते सर्वे] ये सब [अध्यवसानादयः भावाः] अध्यबसानादिक भाव [जीवाः] जीव हैं ऐसा [जिनधरैः] जिनबरदेवने [उपदेशः यरिणतः] जो उपदेश वणित किया है वह [व्यवहारस्य दर्शनं] व्यवहारका मत है । तात्पर्य--अध्यवसान पादिक भावोंको जीव दयवहारसे कहा गया है। टीकार्थ---ये सब अध्यवसानादिक भाव 'जीव हैं। ऐसा जो भगवान् सर्वनदेवने कहा है, वह अभूतार्थरूप व्यवहारका मत है । व्यवहार व्यवहारी जीवोंको परमार्थका कहने वाला है जैसे कि म्लेच्छ भाषा म्लेच्छोको वस्तुस्वरूप बतलाती है, इस कारण अपरमार्थभूत होनेपर भी धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करनेके लिये व्यवहारका वर्णन होना न्याययुक्त है । क्योंकि व्यवहारके बिना जीवका शरीरसे परमार्थतः भेद देखनेसे त्रस स्थावर जीवोंका घात निःशंकरूपसे करना ठहरेगा । जैसे भस्मक मर्दन करने में हिंसाका प्रभाव है, उसी प्रकार उनके मारने में भी हिंसा नहीं सिद्ध होगी, किन्तु हिंसाका अभाव ठहरेगा तब उनके घात होने से बंधका भी प्रभाव ठह रेगा। उसी प्रकार बध्यमान रागी द्वेषी मोही जीव ही तो छुड़ाने योग्य है सो व्यवहारके बिना परमार्थतः रागद्वेष मोहसे भिन्न जीवको दिखलानेपर मोक्षके उपायका ग्रहण न होने से मोक्षका भो अभाव ठहरेगा । इसलिये जिनेन्द्र देवने व्यवहारका उपदेश किया है। भावार्थ:-~ग्रहमा स्वयं सहज अपने ही सत्वके कारण जिस स्वभावरूप है उस स्वभावमात्र देना परमार्थनय है. वह तो जीवको शरीर और राग द्वेप मोहसे भिन्न दिखाता
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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