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________________ १०४ समयसार कथं चिदन्वयत्वप्रतिभासेप्यध्यबसानादयः पुद्गलस्वभावा इति चेत् अविहं पि य कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणा विति । जस्स फलं तं वुच्चइ दुक्खं ति विपच्चमाणस्स ॥४५॥ पाठों ही कर्मोको, पुद्गलमय ही जिनेन्द्र बतलाते । जिनके कि उदयका फल, सारा दुखरूप कहलाता ॥४५।। अष्टविधपि च कर्म सर्व पुद्गलमयं जिना विदंति । यस्य फलं तदुच्यते दुःखमिति विपच्यमानस्य ।।४।। अध्यवसानादिभावनिर्वतंकमष्टविधमपि च कर्म समस्तमेव पुद्गलमयमिति किल सकलज्ञज्ञप्तिः, तस्य तु यद्विपाककाष्ठामधिरूढस्य फलत्वेनाभिलप्यते तदनाकुलत्वलक्षणसौख्याख्यात्म नामसंज्ञ-अट्टविह, पि, य, कम्म, सव्व, पुमगलमय, जिण, ज, फल, त, दुक्ख, इति, विपच्चमाण । धातुसंज्ञ-विद शाने, बच्च व्यक्तायां वात्रि । प्रकृतिशब्द - अष्टबिध, अपि, च, कर्मन, सर्व, पुद्गलमय, जिन, यत्, फल, तत्, दुःख, इति, विपच्यमान। मूलधातु--विद ज्ञाने, बच परिभाषणे, डुपचष् पाके। पदविवरण–अष्टविध-द्वि० एक०, अपि-अय्यय, च-अ०, कर्म-द्वि० एक पुत... हिक, मृगलमज्ञानावरणादि कर्म हैं, वे सभी पुद्गलमय हैं, ऐसा सर्वज्ञदेवका वचन है । विपाकको पराकाष्ठा को प्राप्त कर्मका फलरूपसे जो कहा जाता है वह कर्मफल अनाकुलतास्वरूप सुखनासक मात्माके स्वभावसे विलक्षण है, पाकुलतामय है, इसलिए दुःख है । उस दुःखमें ही प्राकुलतास्वरूप अध्यवसान प्रादिक भाव समाविष्ट हो जाते हैं, इसलिए वे यद्यपि चतन्यसे सम्बंध होने का भ्रम उत्पन्न करते हैं, तो भी वे प्रात्माके स्वभाव नहीं हैं, किन्तु पुद्गलस्वभाव ही हैं। भावार्थ-- यह आत्मा कर्मका उदय पानेपर दुःखरूप परिणमन करता है और जो दुःखरूप भाव है वह मध्यवसान है, इसलिए दुःखरूप भावमें चेतनके सम्बंध काभ्रम बन जाता है । परमार्थसे दुःखस्वरूप भाव चेतन नहीं है, कर्मजन्य है, इस कारण जड़ ही है। प्रसंगविवरग–अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि अध्यवसान आदि भाव सब पुद्गलकर्मनिष्पन्न हैं सो उसपर यह आशंका होती है कि अध्यवसान आदि भावोंका तो चेतन में अन्वय दिखता याने शुभाशुभ भाव, सुख-दुःख भाव प्रादि चेतन में ही पाये जाते, फिर इनको पुद्गलस्वभाष क्यों कहा गया है ? इम्रो प्रश्नका इस गाथामें समाधान किया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) जिस समय नवीन कर्मवर्गणाबोंका बंध होता है उसी समय उन कर्मवर्गणावोंमें प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, प्रदेशबंध व अनुभागबंध चारों बन्ध पड़ जाते हैं। (२) पूर्वबद्ध कर्मका जब अनुभाग उदित होता है तब उसका जो फल है वह दुःखरूप ही है । (३) अध्यवसानादि भाव दुःखरूप कर्मफल ही हैं और कर्म हैं पुद्गलमय, प्रतः अध्यबसानादि
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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