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जीवाजीवाधिकार
१०३ क्तत्वेनान्यस्य चित्स्वमावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वादिति । इह खलु पुद्गलभिन्नात्मोपलब्धि प्रति विप्रतिपश्नः साम्नवमनुशास्यः । विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन, स्वयमपि निभृतः सन पश्य पण्मासमेकं । हृदयसरसि पुंसः पुद्गलादिन्नधाम्नो, ननु किमनुपलब्धि ति किंचोपलब्धिः ।।१४।। ॥४४॥ क्रिया क्तान्त कृदन्त । कथं-अन्यय । ते-प्रथमा ब० ! जीव:-प्रथमा एकवचन । इति-अव्यय। उच्यतेवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन भावकर्मप्रक्रिया कर्मवाच्यमें क्रिया ॥४४॥ माहसे अधिक व भव भवान्तर तक भी रहता है, लेकिन जो अन्तस्तत्त्वकी दृष्टिका मास अनवरत बनावे तो उसे ज्यादासे ज्यादा छह महीनेके अन्दर हो प्रात्मोपलब्धि हो जायगी, जल्दीसे जल्दी अन्तमुहूर्त में हो जायगी ।
सिद्धांत-१-अध्यबसान, भावकर्म, अध्यवसानसंतति, शुभाशुभभाव, जीवमें हुए सुख दुःखादि ये पुढेगलकर्मोपाधिका निमित्त पाकर होनेसे पौद्गलिक हैं । २- प्रात्मकर्मोभय आत्मा व कर्म इन दोनोंको सम्मिश्रण माननेसे पौद्गलिक हैं। ३-शरीर व कर्मसंयोग स्वयं पाप ही उपादानतया पौलिक हैं ।
दृष्टि-१-विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनय (४८) । २-संश्लिष्ट स्वजातिविजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार (१२७) । ३-कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३)।
प्रयोग---सहज एकत्व विभक्त अन्तस्तत्त्व चित्स्वभावके अतिरिक्त सभी भावोंको पर. भाव निरखकर उनका ख्याल भी छोड़कर चित्स्वभावमात्र अपनेको अपने में पा लेवे ऐसा परम विश्राम लेना चाहिये ।।४४।।
__ अब शिष्य पूछता है कि इन अध्यबसानादिक भावोंको तो जीव नहीं बतलाया, अन्य चैतन्यस्वभावको जीव कहा सो ये भाव भी तो चैतन्यसे ही सम्बन्ध रखने वाले मालूम होते हैं, चैतन्य के बिना जड़के तो होते नहीं, इनको पुद्गलके कैसे कहा ? ऐसा पूछा जानेपर उत्तर रूप माथासूत्र कहते हैं--[अष्टविधमपि च] पाठों ही तरहके [कर्म] कर्म [सबं] सब [पुद्गलमयं] पुद्गलस्वरूप हैं, ऐसा [जिनाः] जिन भगवान् सर्वशदेव [विन्दन्ति कहते हैं। [यस्य विपच्यमानस्य] जिस पनकर उदयमें अाने वाले कर्मका [फलं] फल [सत्] प्रसिद्ध [दुःखं] दुःख है [इति उच्यते] ऐसा कहा गया है ।
- तात्पर्य-पाठों ही प्रकारके कर्म पौद्गलिक हैं और जब वे उदयमें पाते हैं तब उनका फल दुःख ही होता है ।
टीकार्थ--प्रध्यवसान प्रादि समस्त भावोंके उत्पन्न करने वाले पाठ प्रकारके जो