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________________ समयसार पद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावास्तदा कशं जीवत्वेन सूचिता इति चेत् – ववहारस्स दरीसणामुवएसो परिणदों जिणवरेहिं । जीवा एदे सब्बे अज्झवसाणादयो भावा ॥४६॥ ये प्रध्यवसानादिक, जीव कहे कहीं ग्रन्थमें वह सब । व्यवहारका हि दर्शन, जिनवरका पूर्व वरिणत है ॥४६॥ व्यवहारस्य दर्शनमुपदेशो वणितो जिनवरैः . ना हो सध्ययमानायो भावा. ।।६।। सर्वे एवैतेऽध्यवसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलजः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनं । व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य नामसंज्ञ-बबहार, दरीमण, उवएस, वणिद, जिणवर, जीव, एत, सव्व, अज्झवसाणादि, भाव । धातुसंज.... दरिस दर्शनाया, वग्ण वर्णने । प्रकृतिशब्द-- व्यवहार, दर्शन, उपदेश, वणित, जिनवर, जीव, एतत्, सर्व, अध्यवसानादि, भाव । मूलधातु --शिर् प्रेक्षण, वर्ण वर्णने, वर्ण स्तुतौ। पदविवरण व्यवहै । यदि इसीका एकांत किया जाय तब शरीर तथा राग, द्वेष, मोह पुद्गलमय ठहरेंगे, तब पुद्गलके घातसे हिंसा नहीं हो सकती और राग, द्वेष, मोहसे बंध नहीं हो सकता । इस प्रकार परमार्थसे संसार मोक्ष दोनोंका अभाव हो जाएगा । ऐसा एकांतरूप वस्तुका स्वरूप नहीं है । अवस्तुका श्रद्धान, ज्ञान और प्राचरण मिथ्या अवस्तुरूप ही है, इसलिये व्यवहारका उपदेश न्यायप्राप्त है । इस प्रकार स्थाद्वादसे दोनों नयोंका विरोध मेटकर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। प्रसंगबिधरण--अनन्तरपूर्व गाथामें अध्यवसानादिभावोंको पुद्गलस्वभाव बताया गया था । सो उस विषय में यह प्राशंका होना प्राकृतिक है कि यदि अध्यवसानादि भाव पुद्गलस्वभाव हैं तो उन्हें सिद्धान्त ग्रन्थोंमें जोवरूपसे क्यों बताया गया है, इसी प्राशङ्काका समाधान इस गाथामें किया गया है । तथ्यप्रकाश--(१) अध्यवसानादिक भाव अभूतार्थ हैं अर्थात् स्वयं सहज भूत (सत्) अर्थ (वस्तु) नहीं है । (२) प्रभूतार्थ होनेपर भी अध्यवसानादिको जीवरूपसे व्यवहुत करना तीर्थप्रवृत्तिके लिये न्याययुक्त है। (३) व्यवहार न माना जाय तो जीदोंकी हिंसा निःशक होकर की जाने लगेगी, क्योंकि व्यवहार माना नहीं और पारमार्थका ही एकान्त किया और परमार्थसे तो जीव शरीरसे भिन्न ही है, फिर शरीरपर शरत्र चलानेमें क्या बुरा माना जायगा। (४) व्यवहार बिना तो जीवके कर्मबंध के अभावका भी प्रसंग होगा, क्योंकि जीव तो रागद्वेष मोहसे भिन्न है यह परमार्थं कान्त बन गया, फिर रागद्वेषमोहमूलक बन्ध कैसे होगा?
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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