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________________ जीवाजीवाधिकार परमार्थतो भेददर्शनातत्रसस्थावराणां भस्मन इव निःशङ्कमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बंध. स्याभावः । तथा रक्तो द्विष्टो विमूछो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः ।।४।। हारस्य-पाठी एकवचन । दर्शन-प्रथमा एकवचन । उपदेश:-प्रथमा एक० । वणित:-प्रथमा एक० कृदंत किया। जिनवरैः-तृतीया ब० कर्मवाच्य में कर्ता । जीवा:-प्रथमा ब०। एते-प्रथमा ब.। सर्वप्रथमा ब० ॥ अध्यवसानादयः-प्रथमा ब० । भावा:-प्रथमा बहुवचन ॥४६॥ (५) व्यवहार माने बिना मोक्षके अभात्रका प्रसंग होगा, क्योंकि परमार्थ कान्तमें जीवके बन्ध हो नहीं तो अबद्धको मोक्षोपायको आवश्यकता नहीं, न उपाय बनेगा। (६) जैनागममें व्यवहारोपदेश न्याय्य है। सिद्धान्त-(१) निमित्त पाकर उपादान में होने वाले नैमित्तिक भावोंको प्रोध उपादानरूप पदार्थ कह देना व्यवहारका अभिमत है ।। दृष्टि-१- स्वजातिपर्याये स्वजातिद्रव्योपचारक असद्भूत व्यवहार (१२०)। प्रयोग- औपाधिकभाव प्रोध उपादानभूत मुझ अात्मामें व्याप्य नहीं है, औपाधिक भावोंसे मैं परे हूं, निस्वभाव मात्र हूं. ऐसी अन्तः आराधना करनी चाहिये ।। ४६।। अब शिष्य पूछना है कि यह व्यवहार किस दृष्टान्तसे प्रवृत्त हुआ ? उसका उत्तर कहते हैं; जैसे [बलसमुदयस्य] सेनाके समूहको [राजा खलु निर्गतः] राजा ही निकला [ इत्येष प्रादेशः ऐसा यह पादेश [ध्यवहारेण तु उच्यते] व्यवहारसे कहा जाता है । [त] उस सेनामें तो वास्तवमें [एकः] एक [राजा निर्गतः] ही राजा निकला है [एवमेव च] इसी तरह [अध्यवसानाद्यन्यभावामां] इन मध्यवसान प्रादि अन्य भावोंको [सूत्र] परमागममें [जीव इति] ये जीव है, ऐसा [व्यवहारः कृतः] व्यवहार किया गया है [तत्र निश्चितः] वहाँ निश्चयसे विचारा जाय तो उन भावोंमें [जीवः एकः] जीव तो एक ही है । तात्पर्य--जीवके विपरिमामनोंको जीव कहना व्यवहार है, परमार्थसे तो एक नायकस्वभावमात्र ही जीव है । टीकार्थ—जैसे कहा जाता है कि यह रामा पाँच योजनके फैलावमें निकल रहा है, वहाँ निश्चय से विचारा जाय तो एक राजाको पाँच योजनमें व्यापना असम्भव है, तो भी व्यवहारी (अज्ञानी) जनोंका सेनाके समुदायमें राजा कहनेका व्यवहार है । परमार्थसे तो राजा एक ही है, सेना राजा नहीं। उसी तरह यह जीव सब रागके स्थानोंको व्यापकर प्रवृत्त हो रहा है, वहां निश्चयसे विचारा जाय तो एक जोनका समस्त रागनामको व्यापकर रहना अशक्य है तो भी व्यवहारो लोकोंका अध्यवसानादिक अन्य भावोंमें 'ये जीव हैं। ऐसा व्यवहार
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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