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________________ समयमार प्रथ केन दृष्टांतेन प्रवृत्तो व्यवहार इति चेत्: - राया हु णिग्गदोत्ति य एसो बलसमुदयस्स श्रादेसो। ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया ॥४७॥ एमेव य वबहारो अज्झवसाणादिगणभावाणं । जीवो ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो ॥४८॥ बलसमुवयको राजा, इतना विस्तृत चला हुमा कहना । व्यवहारमात्र चर्चा, निश्चयसे एक वर नृप है ॥४७॥ त्यों ही जहँ जीब कहा, अध्यवसानादि अन्य भावोंको । व्यवहारमात्र चर्चा, निश्चित बहें जीव एक हि है ॥४८॥ राजा खलु निर्गत इति चेष बलसमुदयस्यादेश: । व्यवहारेण तुच्यते नटको चिनो गाजा ॥४॥ एवमेव च व्यवहारोध्यवसानाद्यन्यभावानां । जीव इति कृत: सूत्र तत्रैको निश्चितो जीवः ।।४।। यथेष राजा पंच योजनान्यभिव्याप्य मिष्क्रामतीत्येकस्य पंचयोजनान्यभिव्याप्तमशक्यस्वाद्व्यवहारिणा बलसमुदाये राजेति व्यवहारः । परमार्थतस्त्वेक एव राजा । तथैष जीवः नामसंझ-राय, हु, णिग्गद, इत्ति, य, एत, बलसमुदय, आदेस, बबहार, दा, तत्प, एक, णिग्गद, राय, एमेव, य, बबहार, अज्मवसाणादिअष्णभाव, जीव. कद, सुत्त, तत्थ, एक्क, णिन्छिद, जीव । धातुसंह-आ-दिस प्रेक्षण, बच्च व्यक्तायां वाचि । प्रकृतिशबद-राजन्, खलु, मिर्गत. इति, एतत्, बलसमुदय, आदेश, व्यवहार, तु, तत्र, एक, निर्गत, राजन्, एवं, एव, च, व्यवहार, अध्यवसानधन्यभाव, जीव, इति, कृत, सूत्र, तत्र, एक, निश्चित, जीव । मूलधातु -राज दीप्ती, निस्-गम्लु गतो. डुकृत्र करणे, प्रवर्तता है, परमार्थसे तो जीय एक ही है, अध्यवसान आदि भाव जोव नहीं हैं। प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रध्यवसानादि भावोंको जीव व्यवहारसे कहा गया है। सो अब उसी विषयका स्पष्टीकरण इन दो गाथावोंमें दृष्टान्तपूर्वक किया गया है। तथ्यप्रकाश---(१) सेनासमूह राजासम्बंधित होनेसे और उसमें राजाका सद्भाव होने से सेनासमूहमें राजाका व्यपदेश होता है कि राजा पांच योजनमें फैलकर जा रहा है । (२) सेनासमूहमें राजाका व्यवहार होनेपर भी वास्तवमें तो राजा एक है और अपने ही एक व्यक्ति के प्रमाण हैं । (३) अध्यवसानादि भाव (रागादि भाव) जोवसम्बंधित होनेसे व अध्यवसानादि भावका उस समय जीव प्राधार होनेसे अध्यवसानादि परभावोंमें जीवका व्यपदेश होता है कि अध्यवसानादि भाव जीव हैं । (४) अध्यबसानादि भावोंमें जोवका व्यवहार होनेपर भी परमार्थसे तो जीव एक ज्ञायकस्वभाव है और वह अपने स्वरूपमात्र है।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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