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________________ १०६ जीजीवाधिकार समग्रे रागग्राममभिव्याप्य प्रवर्तत इत्येकस्य समग्नं रागग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाद्व्यवहारिणामध्यवसानादिष्वन्यभावेषु जीव इति व्यवहारः । परमार्थतस्त्वेक एव जीव: ।। ४७-४८|| सूत्र वेष्टने, निस्-चित्र त्यने। पदविवरण- राजा-प्रथमा एक० । खलु-अ० । निर्गत:-प्रथमा एक. कृदंत क्रिया । इति--0 एष:-प्रथमा एक० । बलसमध्यस्य-सष्ठी एक क०। तु-अ० । उच्यते-भावकर्म त-अ० । प्रक्रिया वर्तमान अन्य पुसष एक० तत्र-अ०। एक:-प्रथमा एक० । निर्गत:-प्रथमा एक०। राज एक० । एवं-ब० । एव- अ व्यवहार:-प्रथमा एक०। अध्यवसानाद्यन्यभावाना-षष्टी ब। जीव:प्रथमा एक० । इति-अ० । कृतः-प्रथमा एकवचन कृदंत क्रिया कर्मवाच्य में । सुत्रे-सप्तमी एक० । तंत्रअ० । निश्चित:-प्रथमा एकवचन । जीव:--प्रथमा एक० ।।४७-४८॥ सिद्धान्त--(१) द्रव्यको औपाधिक पर्यायोंमें द्रव्यका व्यवहार ईषत् प्रयोजनके लिये है । (२) शाश्वत स्वभावमय वस्तु वह एक ही शाश्वत है । दृष्टि---१- स्वजातिपर्याये स्वजातिद्रव्योपचारक असद्भत व्यवहार (१२०) । २परमशुद्धनिश्चयनय (४४)। प्रयोग- अपनेको समस्त विपरिणमनोंसे विविक्त निरखकर केवल चित्स्वभावमात्र अनुभवना चाहिये ॥४७-४८।। अब शिष्य पूछता है कि ये अध्यवसानादिक भाव हैं, वे जीव नहीं हैं तो एक टंकोत्कीर्ण परमार्थ स्वरूप जीव कैसा है, उसका क्या लक्षण है ? इसका उत्तर कहते हैं-हे भव्य तू [जीयं] जीवको [अरसं] रसरहित [अरूपं] रूपरहित [अगंध] गंधरहित [अव्यक्तं इन्द्रियोंके अगोचर [चेतनागुणं] चेतनागुण वाला [प्रशब्दं] शब्दरहित [अलिंगग्रहणं] किसी चिह्न कर जिसका ग्रहण नहीं होता ऐसा व [मनिदिष्टसंस्थानं] जिसका आकार कुछ कहने में महीं पाता, ऐसा [जानीहि] जानो। तात्पर्य-परमार्थतः जीव रूपरसगन्धस्पर्शशब्दशून्य है, अव्यक्त, स्वयं निराकार व चैतन्यगुण वाला है। टीकार्थ-जो (जीव) निश्चयसे पुद्गलद्रव्यसे भिन्न होनेसे उसमें रस गुण विद्यमान नहीं हैं इस कारण अरस है ।।१।। पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेसे स्वयं रसगुरग नहीं है इस कारण भी अरस है ॥२॥ परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामित्व भी इसके नहीं है, इसलिये द्रव्येन्द्रियके पालम्बनसे पाप रसरूप परिणमन नहीं करता इस कारण भी परस है ॥३॥ अपने स्वभावकी दृष्टिसे देखा जाय तो क्षायोपमिक भावका भी इसके प्रभाव है, इसलिये भावेन्द्रियके अवलंबनसे भी इसके रसरूप परिणामका प्रभाव है, इस कारण भी मरस है ।।४।। इसका सम्वेदन परिणाम तो एक ही है, वह सकल विषयोंके विशेषोंमें साधारण है, उस स्व.
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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