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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार मोक्षमार्गस्वात् प्रात्मा योक्तव्य इति सूत्रानुमतिः ।। दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः । एक एव सदा सेव्यो मोक्षमागों मुमुक्षुणा ॥२३६।। ।।४११।। ब० । सामारणगारएहि सागारैः अनगारैः-तृतीया बहु० । बा-अव्यय । गहिए गृहीतानि-द्वि० बहु० । दसणाणचरित्ते दर्शनज्ञानचरित्र-सप्तमी एक० । अप्पाणं आत्मानं-द्वितीया एक० । जुंज युक्ष्व-आज्ञार्थं लोट् मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया । मोवखपहे मोक्षपथे-सप्तमी एकवचन ।। ४११ ।। व्यवहारसे निश्चयमोक्षमार्गके साधक हैं, उन को नहीं छुड़ाते; परन्तु ऐसा कहते हैं कि उनका भी ममत्व छोड़कर परमार्थ मोक्षमार्गमें लगनेसे ही मोक्ष होता है, केवल भेषमात्रसे मोक्ष नहीं
___ अब इसी प्रर्थको काव्यमें दृढ़ करते हैं-शन इत्यादि । अर्थ-प्रात्माका यथार्थरूप दर्शनशान चारित्रका त्रिकस्वरूप है। सो मोक्षके इच्छुक पुरुषोंको एक यही मोक्षमार्ग सदा सेवने योग्य है । भावार्थ- अन्तस्तत्त्वका श्रद्धान ज्ञान रमण ही मोक्षमार्ग है ।
प्रसंगविवरण-- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं, किन्तु सभ्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमय प्रात्मपरिणाम मोक्षमा है। अब इस गाथामें द्रयलिगका ममत्व छुटाकर प्रात्माको परमार्थ मोक्षमार्गमें लगानेका उपदेश किया है ।
तभ्यप्रकाश-१- देहलिग मोक्षमा नहीं हैं, गोंकि ट्रगालिग अनात्माश्रित है। २- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र मोक्षमार्ग है, क्योंकि यह रत्नत्रय प्रात्माश्रित है । ३-समस्तद्रव्यलिगको त्यागकर दर्शनज्ञानचारित्रमें ही अपनेको भगाना मोक्षमार्गको साधना है । ४-देहममत्व का त्याग ही समस्त द्रयलिंगका त्याग है ।
सिद्धान्त---१- अनात्माश्रित द्रव्यलिङ्ग प्रात्माके विकासका मार्ग नहीं है । . दृष्टि ---१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६ अ)।
प्रयोग-गृहीत देहलिगका ममकार छोड़कर, देहका ममकार छोड़कर अपने मात्माको दर्शन ज्ञानचारित्रमय मोक्षमार्गमें लगाना ।।४११॥
प्रब मोक्षपथमें लगनेका उपदेश गाथामें कहते हैं:-- हे भव्य तू [मोक्षपणे] मोक्षमार्ग में [प्रात्मानं] अपने प्रात्माको [स्थापय] स्थापित कर [च सं एवं] उसीका [ध्याय] ध्यान कर [तं घेतयस्व] उसीका अनुभव कर [तत्रैव नित्यं विहर] और उस प्रात्मामें ही निरंतर विहार कर, [अन्यद्रव्येषु मा विहार्षीः] न्यद्रव्योंमें विहार मत कर ।
तात्पर्य---सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमें ही उपयुक्त रहना मोक्षार्थीका कर्तव्य है। टीकार्थ- अनादि संसारसे लेकर अपने बुद्धिदोषसे परद्रय रागद्वेषादि नित्य ही