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________________ समयसार यत एवं-- तहमा दु हित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिए । दसणणाणचरित्ते अप्पाणं झुंज मोक्खपहे ॥४११॥ इससे सागार तथा, अनगारोंके गृहीत लिङ्गोंको। तजि दृशिज्ञारचरितमय, शिवपथमें युक्त कर निजको ।।४११॥ तस्मात् तु हित्वा लिङ्गानि सागार रनगार्वा गृहीतानि । दर्शनशानचरित्रे आत्मानं युक्ष्व मोक्षपथे ।।'४११।। यतो द्रव्यालगं न मोक्षमार्गः, ततः समस्तमपि द्रव्यलिगं त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारिश्रेष्वेद नामसंज-त, दु, लिङ्ग, सागारणगार, वा, दसणाणचरित्त, अप्प, मोक्खपढ् । धातुसंस-हा ह्रासे, गह ग्रहरणे, जुज योगे । प्रातिपक्षिक-तत्, तु, लिंग, सागार, अनगार, वा, गृहीत, दर्शनशानचारित्र, आत्मन्, मोक्षपथ । मूलधातु-ओहाक त्यागे, ग्रह उपादाने, युजिर योगे रुधादि। पदविवरण–तम्हा तस्मात-पंचमी एक दुतु-अव्यय । हितु हित्वा-असमाप्तिकी क्रिया व अव्यय । लिंगे लिङ्गानि-द्वि०. दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ब) । प्रयोग-कैवल्यलाभके लिये केवल प्रात्माश्रित सहज चैतन्यस्वरूपको उपासना कर रत्नत्रयपरिणमनरूप पौरुष करना ॥ ४१० ॥ अब कहते हैं कि यदि द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है तो मोक्षार्थ क्या करना चाहिए[तस्मात त] इस कारण हो सागारः] गृहस्थोके द्वारा [बा] अथवा [भनगारः] मुनियोंके द्वारा गृहीतानि लिगानि] ग्रहण किये गये लिंगोंको [हित्वा] छोड़कर [प्रास्मानं] अपने पाल्माको दर्शनशानचारित्रे] दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप [मोक्षपथे] मोक्षमार्गमें [युक्ष्व] युक्त करो। तात्पर्य–लिङ्ग छोड़ने का भाव है लिङ्गसे ममता छोड़ना, सो गृहस्थ व मुनि अपने पदके लिङ्गमें रहकर उससे ममता छोड़कर प्रात्माके दर्शनज्ञान चारित्रमें उपयुक्त होनो। टोकार्थ-चंकि द्रव्यलिंग मोक्षका मार्ग नहीं है, इस कारण सभी द्रव्यलिंगोंको छोड़ कर दर्शनशानचारित्रमें ही प्रात्माको युक्त करना चाहिये । यही मोक्षका मार्ग है ऐसा सूत्रका उपदेश है । भावार्य-यहाँ द्रव्यलिंगको छुड़ाकर दर्शन ज्ञान और चारित्रमें लगानेका उपदेश है। यह सामान्य परमार्थ वचन है, कहीं यह मुनि व श्रावकके व्रत छुड़ानेका उपवेश नहीं है। जो केवल व्यलिंगको ही मोक्षमार्ग जानकर भेष धारण करते हैं उनको व्यलिगका पक्ष छुड़ाया है कि भेषमात्रसे मोक्ष नहीं है, परमार्थरूप मोक्षमार्ग प्रात्माके दर्शन ज्ञान और चारित्ररूप परिणाम ही हैं । चरणानुयोगमें कहे अनुसार जो मुनि व श्रावकके बाह्यवत हैं ये
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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