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________________ ६. समयसार प्रथाहाप्रतिबुद्धः-- जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंधुदी चेव । सव्वावि हवदि मिच्छा तेण दु श्रादा हदि देहो ॥२६॥ यदि जीव देह नहि है, तो जो प्रभु प्रार्यकी स्तुती को है। वह सर्व झूठ होगा, इससे हि तन प्रात्मा जचता ॥१६॥ यदि जीवो न शरीरं तीर्थंकराचार्यसंस्तुतिश्चैत्र । सर्वापि भवति मिथ्या तेन तु आत्मा भवति देहः ॥२६।। यदि य एवात्मा लदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यं न भवेत्तदा-क्रांतयव स्नपयंति ये दश दिशो घाम्ना निरुन्धति ये धामोदाममहस्विनां जनमनो मुणति रूपेण ये । दिव्यन ध्वनिना सुखं ___ नामसंज्ञ--- जदि, जीव, ण, सरीर, तित्थयरायरियसंथुदि, च, एव, सव्वा, वि, मिच्छा तेण, दु, अत्त, देह । धातसंज्ञ-हव सत्तायां, दिह बदौ । प्रातिपदिक-यदि, जीव, न, शरीर तीर्थंकराचार्यसंस्तति, च, एक, सर्वा, अपि, मिथ्या, तत्, तु, आत्मन्, देह । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, तृप्लवनतरणयोः, ष्टुन स्तुती, भू सत्तायां, दिह उपचये। पदविवरण-यदि-अव्यय । जीव:-प्रथमा एकवचन । न-अव्यय। 'कात्येव' इत्यादि । अर्थ---जो अपने शरीरकी कांतिसे दसों दिशाओंको स्नान कराते हैंनिर्मल करते हैं, जो अपने तेजसे उत्कृष्ट तेज वाले सूर्यादिकके तेजको भी छिपा देते हैं, जो अपने रूपसे लोकोंका मन हर लेते हैं ऐसे दिव्यध्वनि (वाणी) द्वारा भव्योंके कानों में साक्षात् सुख अमृत बरसाते हुए तथा एक हजार पाठ लक्षणोंको धारण करने वाले वे तीर्थंकर सूरि (मोक्षमार्गोपदेशक) वंदने योग्य हैं । इत्यादिक तीर्थङ्करोंकी स्तुति है वह सभी मिथ्या ठहरेगी। इसलिये हमारे तो यही एकान्नसे निश्चय है कि प्रात्मा है वह शरीर हो है पुद्गल द्रव्य हो है । ऐसा अप्रतिबुद्धने कहा । उसको प्राचार्य उत्तर देते हैं कि इस तरह नहीं है, अभी तूने नविभाग नहीं समझा है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व कुलक गाथानोंमें अप्रतिबुद्ध जोवको भेदविज्ञानका प्रति. बोध कराया गया था उसको सुनकर यहां अप्रतिबुद्ध पुरुष अपने मनकी घुली छुपी बात स्पष्ट कह रहा है। तथ्यप्रकाश-(१) स्तवमग्रन्थोंमें स्तुति देहकी स्तुति करते हुए भी पाती है सो उसमे भी प्रयोजन निमित्तनैमित्तिक भाव द्वारा प्रात्मगुणोंको ही बतानेका है, ऐसी स्तुति औपचारिक स्तुति कहलाती हैं । (२) प्रौपचारिक स्तुतिकी वचनभाषाका अर्थ कोई सीधा उपादानभाषामें लगाये तो वह मिथ्या होता है । सिद्धान्त---(१) उपचारस्तवनादिमें प्रयोजन व निमित्तका परिचय होता है । (२)
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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