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प्रतोन्यस्तूपचार:
समयसार
जीवसि दुभूदे बंधस्स दु परिसदूण परिणामं । जीवेण कदं कम्मं भणादि उवयारमत्ते || १०५॥ जीवहेतु होनेपर, विधिके बन्धपरिणामको लख कर । जीव कर्म करता है, ऐसा उपचारमात्र कहा ।। १०५ ।। जीवे हेतुभूते बंधस्य तु दृष्ट्वा परिणामं । जीवन कृतं कर्म भव्यते उपचारमात्रेण ।। १०५ ॥ इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तनिमित्तभूतेनाज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति संपद्यमानत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निवि
नामसंज्ञ - जीव, हेदुभूद, बंध, दु, परिणाम, जीव, कद, कम्म, उवयारमत्त। धातुसंज्ञ-पास दर्शने, भण कथने । प्रकृतिशब्द- जीव हेतुभूत, बन्ध, तु, परिणाम, जीव, कृत, कर्मन, उपचारमात्र । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, बन्ध बन्धने, दृशिर् प्रेक्षणे, डुकृञ करणे, भण शब्दार्थे, उप-चर गत्यर्थे भक्षणेपि स्वादि, चर संशये चुरादि । पदविवरण- जीवे सप्तमी एकवचन । हेतुभूते स० ए० । बंघस्य षष्ठी एक० । तुअव्यय । दृष्ट्वा -- असमाप्तिकी क्रिया । परिणामं द्वि० एक० । जीयेन तृतीया एकवचन कर्मवाच्ये कर्ता ।
प्रसंग विवरण - अनंतरपूर्व गाषा में बताया गया था कि यह निश्चित हुआ कि आत्मा पुद्गलकमका कर्ता है । अब इस गाथा में बताया कि इससे विपरीत कहना याने जीवने कर्म किया यह कहना उपचारमात्र है ।
तथ्यप्रकाश -- ( १ ) पौद्गलिक कार्याणवर्गणामें कर्मत्व होनेका निमित्तभूत प्रशुद्धोपादान आत्मा है । (२) श्रात्मा कर्मत्वका निमित्तभूत स्वभावसे नहीं है । (३) अज्ञानभाव से परिणम रहा हो म्रात्मा कर्मत्वका निमित्तभूत है । ( ४ ) कर्मत्वका निमित्तभूत होनेसे जीवको कर्मका कर्ता कहा जाता है यह उपचारसे कहा जाता है। ( ५ ) विज्ञानघन भ्रष्ट विकल्पक बहिरात्मा ही परकतृत्वका विकल्प होता है । ( ६ ) निमित्तनैमित्तिक भावके कारण निमित्तको नैमित्तिककार्यका कर्ता कहना उपचारसे ही है, उपचार ही है, परमार्थ नहीं है ।
सिद्धान्त -- (१) निमित्तत्व बतानेके प्रयोजनवश निमित्तमें कर्तृत्वका आरोप किया जाता है । (२) वास्तविक विधि तो उसी द्रव्यका सब कुछ उसी द्रव्य में बताने की होती है । दृष्टि - १- परकर्तृत्व प्रसद्भूतव्यवहार ( १२९ ) । २- भखण्ड परमशुद्धनिश्वयनय, शक्तिबोधक परमशुद्ध निश्चयनय, शुद्धनिश्चयनय, सभेद शुद्ध निश्चयनय, प्रशुद्धनिश्चयलय, सभेद अशुद्ध निश्चयनय, विवक्षितक देश शुद्ध निश्चयनय, शुद्धनय (४४, ४५, ४६, ४६८, ४७, ४७८, ४८, ४९ ) ।
प्रयोग — एकका दूसरेके साथ सम्बन्ध नहीं, प्रभाव नहीं, सब अपने-अपने स्वरूपा